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किला / मुकेश मानस

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हमको जनमते ही जो मिला है
ये व्यवस्था
एक क्रूरतम किला है

आदमी यहां जितने भी मिले हैं
सबके सब
किले के भीतर किले हैं

इसमें किसी को
मिलती नहीं मंजिल
इसके भीतर आदमी
नहीं रहता किसी काबिल

कविता मेरी
आग़ाज़ है जिनकी
यहां मिलती नहीं
एक भी आवाज़ उनकी

मैं भी फंसा हुआ हूं
शायद डरा हुआ हूं
शायद मरा हुआ हूं

कितनी गहरी है
निराशा की ये अवस्था
कैसे टूटेगी
पाशविक पंजों मड़ी व्यवस्था

रचनाकाल:1996

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