भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसने सोचा धूपबत्ती राख हो जाती है क्यों / गिरिराज शरण अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसने सोचा धूपबत्ती राख हो जाती है क्यों
ख़ुद सुलगती है मगर घर-भर को महकाती है क्यों

शांत करनी है इसे क्या जानिए कितनों की प्यास
बिन रुके आख़िर नदी हर दम बहे जाती है क्यों

गर अँधेरा ही लिखा था, भाग्य में संसार के
शम्अ की नन्हीं-सी लौ घर-भर को चमकाती है क्यों

इक बसंती रुत ज़रूरी है हर इक पतझड़ के बाद
फूल क्यों खिलते हैं, फ़सलों पर घटा छाती है क्यों

दिन के दुखडे़ ही अगर मेरा मुकद्दर हैं तो फिर
रात मुझको नित नए सपनों से बहलाती है क्यों