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किसलिये मैं गीत गाऊँ / राकेश खंडेलवाल

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किसलिये मैं गीत गाऊँ, किस तरह मैं गीत गाऊँ

खो चुके हैं अर्थ अपना शब्द सारे आज मेरे
दीप की अंगनाई में बढ़ने लगे कुहरे घनेरे
बांसुरी ने लील सरगम मौन की ओढ़ी चुनरिया
नींद से बोझिल पलक को मूँद कर बैठे सवेरे

कंठ स्वर की आज सीमा संकुचित हो रह गई है
और फिर ये प्रश्न भी आवाज़ मैं किसको लगाऊँ

भावना का अर्थ क्या है किन्तु कोई क्या लगाता
कौन कितना कथ्य के अभिप्राय को है जान पाता
ढूँढ़ने लगती नजर जब प्रीत में विश्लेषणायें
संचयित अनुराग का घट एक पल में रीत जाता

अजनबियत के अँधेरों में घुली परछाईयों में
कौन सी में रंग भर कर चित्र मैं अपना बनाऊँ

मायने बदले हुए सम्बन्ध की सौगन्ध के अब
ज़िन्दगी अध्याय नूतन लिख रही अनुबन्ध के अब
गुलमोहर की ओट में जब खिल रहीं कन्नेर कलियाँ
हो गये पर्याय रस के गंध के स्वच्छंद ही अब

हाथ की मेंहदी तलाशे चूड़ियों की खनखनाहट
और पायल पूछती है, किस तरह मैं झनझनाऊँ

किस तरह मैं गीत गाऊँ