किसान / शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’
मैं स्वत: अन्न उपजाता हूँ
पर खुद न पेट भर खाता हूँ
मैं कृष हूँ दुर्बल काला हूँ
पर बहुत बड़ा मन वाला हूँ
सबकुछ सब को देता हूँ, मुझसे ही सबकी आन-बान
अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं,भारत का हूँ निर्धन किसान
है आज किसे मेरी चिंता
मुझको है कौन मनुज गिनता
क्या कोई लखता मम मिहनत
मैं तो सतत श्रम में ही रत
किसने देखा सच्चे दिल से,हैं कितने मेरे विकल प्राण
अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं,भारत का हूँ निर्धन किसान
पैसो से मेरा घर सूना
क्या उपजाऊ कृषि में दूना
अब कौन नीति मैं अपनाओ
किस्से जाकर मैं गुहराऊ
ठग रहे नुझे मेरे भाई,मैं हूँ अबोध बिलकुल अनजान
अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं,भारत का हूँ निर्धन किसान
देहाती हूँ अनपढ़ गंवार
किन्तु न समझो मुझको भार
मैं खुद ही दुःख उठाता हूँ
मै सबका जीवन दाता हूँ
मेरी अवनति से सोचो तो, जावेगी आज किसकी शान
अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं,भारत का हूँ निर्धन किसान
है लगा ताज में मेरा धन
धन लगाया है भाखरा में
भिलाई से इस्पात ढालने
मोती ढूढे थे जर्रा में
तभी पसीने कीमत आंकी, तभी निकली कुछ बोल जुबान
अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं,भारत का हूँ निर्धन किसान