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किसान / हम्मर लेहू तोहर देह / भावना
Kavita Kosh से
बरसात के अन्हर-झक्कर में
देखली जाइत
एगो किसान के
हर लेले।
एक्को गो सऊंस
कपड़ा-लत्ता न रहे
ओकरा देह पर
आउर न रहे छता
जेकरा से उ बचा सके
अप्पन देह
ई बरसईत पानी में।
तखनिए हम्मर नजर
पड़ गेल ओकरा गोर पर
जे रहे कादो से सनल
तइयो केन्हु-केन्हु से
बेमाय ओनाहिते बुझाइत रहे
मुदा उ किसान के
कुछो फरक न परइत रहे
ई सब बात के।
ऊ चलल जाइत रहे
अप्पन धरती माई के
हरिहर करे के खातिर
अप्पन देस के
आउर समृद्ध करे के खातिर।