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किसी और हृदय में / सविता सिंह
Kavita Kosh से
मैं गई तो थी उस रोज़
तुम्हारे भीतर
तुम टहल रहे थे
और तुमसे लिपटती हुई थी हवा
मैं खड़ी देखती रही
तुम्हारी सिहरती निर्वस्त्रा देह
मैं प्रतीक्षा करती रही
तुम्हारे संभलने और लौटने की
एक और सुख की तरफ़
तुम पीले पड़ गए थे
और बस गिरने ही वाले थे
मैं तब भी खड़ी रही
थामने के लिए तुम्हें
लेकिन मैंने देखा
तभी आया तुम्हारा क्रीतदास
तुमसे भी अधिक पीला
और समा गया तुम में
तुम्हारा पौरुष कितना संभला हुआ था
मैंने जाना
ख़ुद को फिर संभालती हुई
किसी तरह आई बाहर
यहाँ भी वैसा ही दृश्य था पसरा हुआ
जिससे निकल कर जा रही थीं
दूसरी स्त्रियाँ मेरी तरह ही
किसी और दृश्य में