किसी का ख़ून सही इक निखार दे तो दिया / जमील मज़हरी
किसी का ख़ून सही इक निखार दे तो दिया
ख़िज़ाँ को तुम ने लिबास-ए-बहार दे तो दिया
मेरे शुऊर को कलियाँ अब और क्या देतीं
तसव्वुर-ए-लब-ए-रंगीन-ए-यार दे तो दिया
अब और ख़िज़्र से क्या चाहती है प्यास मेरी
सराब-ए-रहमत-ए-परवर-दिगार दे तो दिया
अगर-चे जब्र है ये भी मगर ग़नीमत जान
के एक जज़्ब-ए-बे-इख़्तियार दे तो दिया
ये और बात के दामन को फूल दे न सकी
मगर बहार ने तलवों को ख़ार दे तो दिया
बहार आए न आए मगर लहू ने मेरे
चमन की ख़ाक को इक ऐतबार दे तो दिया
उम्मीदें छीन लीं उस ने तो फिर गिला क्या है
क़रार माँग रहे थे क़रार दे तो दिया
करे ख़ुदा से गिला क्यूँ किसी की मजबूरी
किसी के दिल पे सही इख़्तियार दे तो दिया
'जमील' उस आतिश-ए-रुख़ को हवा न दो इतनी
अब और चाहिए क्या इक शरार दे तो दिया