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किसी का नक़्श अँधेरे में जब उभर आया / प्रकाश फ़िकरी

किसी का नक़्श अँधेरे में जब उभर आया
उदास चेहरा शब-ए-दर्द का निखर आया

खुले किवाड़ों के पीछे छुपा था सन्नाटा
सफर से हारा मुसाफिर जब अपने घर आया

जवाज़ ढूँडे वो अपने शिकस्ता-ख़्वाबों का
मैं उस की आँखों से ऐसे सवाल कर आया

वो अक्स अक्स ख़यालों का आईना निकला
मुझे वो शख़्स उजाले में जब नज़र आया

उखड़ती साँसों में क्या था बताऊँ क्या ‘फिक्री’
यही समझ लो के क़िस्सा तमाम कर आया