किसी के पास वो तर्ज़े-बयाँ नहीं देखा / द्विजेन्द्र 'द्विज'
किसी के पास वो तर्ज़े —बयाँ नहीं देखा
सही— सही जो कहे दास्ताँ नहीं देखा
दिखा रहे हैं अभी इसको ‘सोन—चिड़िया’ ही
हमारी आँख से हिन्दोस्ताँ नहीं देखा
शराफ़तों के मुक़ाबिल हज़ार शातिर हैं
अब इस से सख्त कोई इम्तेहाँ नहीं देखा
तिलिस्मी रौशनी से जूझते भी क्या पंछी
कभी जिन्होंने खुला आस्माँ नहीं देखा
रहे वो काम पर आए— गए कई मौसम
कहीं फिर उन—सा कोई सख़्त—जाँ नहीं देखा
थे उसके हुक़्म के पाबन्द कटघरे सारे
डरेगा कटघरों से हुक़्मराँ नहीं देखा
उसे तो काटना था पेड़ बस महल के लिए
टिके थे पेड़ पर भी आशियाँ नहीं देखा
वो आ गया है हमें अब तसल्लियाँ देगा
हमारा आग में जलता मकाँ नहीं देखा
खड़े थे धूप में तनकर, बने रहे बरगद
सरों पे जिन के कोई सायबाँ नहीं देखा
उन्होंने बाँट दिया, मज़हबों में दरिया को
तटों को जोड़ता पुल दरम्याँ नहीं देखा
लिपट के ख़ुद से ही रोए बहुत अकेले में
कहीं जो दिल का कोई राज़दाँ नहीं देखा
पिलाए जो हमें पानी हमारे घर आकर
अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा
ये मुल्क बढ़ रहा है पूछिए न किस जानिब
बग़ैर मंज़िलों के कारवाँ नहीं देखा नहीं देखा
खुदाया, ख़ैर हो, बस्ती में आज फिर हमने
किसी के घेर से भी उठता धुआँ नहीं देखा
बहस के मुद्दओं में मौलवी थे, पंडित थे
वहाँ ‘द्विज’, आदमी का ही निशाँ नहीं देखा