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किसी के साथ न होने के दुख भी झेले हैं / मनमोहन 'तल्ख़'

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किसी के साथ न होने के दुख भी झेले हैं
किसी के साथ मगर और भी अकेले हैं

अब इस के बाद न जाने नसीब में क्या है
न साथ आओ हमारे बहुत झमेले है

कहाँ है याद मिला कोई कब तो कब बिछड़ा
हम अपने ध्यान से उतरे हुए से मेले हैं

कहो न मुझ से के चलते हैं अब मिलेंगे फिर
ये खेल वो हैं के सदियों से लोग खेले हैं

जो घर में जाऊँ तो आवाज़ तक नहीं कोई
गली में आऊँ तो हर सू सदा के रेले हैं

जो लोग भूल-भुलय्याँ हैं ‘तल्ख़’ अब अपनी
नहीं वो सिर्फ़ अकेले बहुत अकेले हैं