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किसी को दे के दिल हमने मुहब्बत का मज़ा पाया / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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किसी को दे के दिल हमने महुब्बत का मज़ा पाया
मगर सोज़े-दरूँ सीने में पहले से सवा पाया

न यह पूछो गया कब किस तरह पहलू से दिल अपना
बस इतना जानते हैं एक दिन हमने गया पाया

तमन्ना थी दिले-मुज़्तिर की सारी कह सुनाएँगे
तुम्हारे रू-ब-रू लेकिन न लब तक भी हिला पाया

तुम्हारे वास्ते सब बुतकदे ठुकरा दिए जिसने
बताओ उसने क्या पाया तुम्हें जो बेवफ़ा पाया

लगाई आग जो तुमने उसे कब अश्कबारी से
मेरी पुर-आब आँखों का समन्दर भी बुझा पाया

करें शिकवा ज़माने में तो किस-किसका करें ऐ दिल!
न अपना और न बेग़ाना कोई भी काम का पाया

ख़िज़ाँ के दौर में भी मुस्कुराते जिसको देखा हो
`शरर' तुम-सा ज़माने में न कोई दूसरा पाया