किसी ख़्याल को ज़ंजीर कर रहा हूँ मैं / आलम खुर्शीद
किसी ख़्याल को ज़ंजीर कर रहा हूँ मैं
शिकस्ता ख़्वाब की ताबीर<ref>स्वप्न का फल</ref> कर रहा हूँ मैं
मेरे वो ख़्वाब जो रंगों में ढल नहीं पाए
उन्हीं को शेर में तस्वीर कर रहा हूँ मैं
हकीक़तों पे ज़माने को ऐतबार नहीं
सो अब फ़साने में तहरीर<ref>लेख, लिखावट</ref> कर रहा हूँ मैं
मेरे मकान का नक्शा तो है नया लेकिन
पुरानीं ईंट से तामीर<ref>निर्माण, बनाना, मकान बनाने का काम</ref> कर रहा हूँ मैं
दुखों को अपने छुपाता हूँ मैं ख़ज़ानों सा
मगर खुशी को हमा-गीर<ref>शामिल, मन में बैठना</ref> कर रहा हूँ मैं
मुझे भी शौक़ है दुनिया को ज़ेर<ref>निम्न, नीचे, परास्त</ref> करने का
सो अपने आपको तस्ख़ीर<ref>वशीभूत करना, बस में करना</ref> कर रहा हूँ मैं
ज़मीन है कि बदलती नहीं कभी महवर
अजब अजब सी तदाबीर कर रहा हूँ मैं
अजीब शख़्स हूँ मंज़िल बुला रही है मगर
बिला-जवाज़<ref>जो जाइज़ नहीं है</ref> ही ताख़ीर<ref>विलम्ब, देर</ref> कर रहा हूँ मैं
जो मैं हूँ उस को छुपाता हूँ सारे आलम<ref>जगत, संसार, दुनिया</ref> से
जो मैं नहीं हूँ वो तशहीर<ref>किसी के दोषों को सब पर प्रकट करना</ref> कर रहा हूँ मैं