भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी गली से ये रिश्ता नहीं बदलते हम / सुदेश कुमार मेहर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी गली से ये रिश्ता नहीं बदलते हम
तुम्हारे बाद भी रसता नहीं बदलते हम

खुली किताब के जैसी है जिंदगी अपनी,
किसी के सामने चहरा नहीं बदलते हम

लहुलुहान हों नज़रें या रूह हो ज़ख़्मी,
हमारी आँखों का सपना नहीं बदलते हम

तमाम उम्र ही अब क्यूँ न ख़त्म हो जाये,
तुम्हारे प्यार का क़िस्सा नहीं बदलते हम

जो जैसा है उसे वैसा ही हमने चाहा है,
मुहब्बतों में ये सिक्का नहीं बदलते हम

वफ़ा कि राह के पक्के हैं हम मुसफ़िर भी,
मिलें न मंजिलें, रसता नहीं बदलते हम

किसी कनेर के फ़ूलों से सुर्ख होंठ उसके,
गुलों से आज भी रिश्ता नहीं बदलते हम

तमाम शक्लें हमें एक जैसी लगती हैं,
हमारी आँखों का चश्मा नहीं बदलते हम

कटा फटा ही सही है ये पैरहन सच का,
नये लिबास से ये कपड़ा नहीं बदलते हम

ये गुलमोहर की हैं शाखें किसी कि याद लिए,
किसी की याद का चेहरा नहीं बदलते हम

कभी यहीं पे ही आकर वो बैठ जाती थी,
इसीलिए तो ये कमरा नहीं बदलते हम