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किसी तरह हम परस्पर हो सकें / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
हर बार हार कर
जब मैं ख़ुद में लौटूँगा
जब मुझे कुछ कहना होगा
जब मैं कह नहीं पाऊंगा
यहीं, यहीं इसी जगह उदासियाँ समेटे
मैं बैठा मिलूंगा
और तब यह दृश्य ज़्यादा साफ़ होगा कि
मेरे पास अब कोई चेहरा नहीं है
मैं सिर्फ़ कुछ कतरनें चाहता हूँ
उधार की नहीं, वे जो ज़िंदगी ने
यहाँ-वहाँ छोड़ दी हैं
इन्हें जोडूंगा या मिलाऊंगा नहीं
किसी तरह हम परस्पर हो सकें
बस इतना ही!!