भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी तरह हम परस्पर हो सकें / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर बार हार कर
जब मैं ख़ुद में लौटूँगा
जब मुझे कुछ कहना होगा
जब मैं कह नहीं पाऊंगा
यहीं, यहीं इसी जगह उदासियाँ समेटे
मैं बैठा मिलूंगा
और तब यह दृश्य ज़्यादा साफ़ होगा कि
मेरे पास अब कोई चेहरा नहीं है
मैं सिर्फ़ कुछ कतरनें चाहता हूँ
उधार की नहीं, वे जो ज़िंदगी ने
यहाँ-वहाँ छोड़ दी हैं
इन्हें जोडूंगा या मिलाऊंगा नहीं
किसी तरह हम परस्पर हो सकें
बस इतना ही!!