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किसी ने कल से खाना नहीं खाया है / शिरीष कुमार मौर्य

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रात मेरे कण्ठ में अटक रहे हैं कौर
मुझे खाने का मन नहीं है
थाली सरका देता हूं तो पत्‍नी सोचती है नाराज़ हूँ या खाना मन का नहीं है

यूँ मन का कुछ भी नहीं है इन दिनों
अभी खाने की थाली में जो कुछ भी है मन का है पर मेरा मन ही नहीं है

मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग स्थिति है

मैंने दिन में खाना खाया था अपनी ख़ुराक भर
भरे पेट मैं काम पर गया

शाम लौटते हुए
सड़क किनारे एक बुढिया से लेकर बाँज के कोयलों पर बढिया सिंका हुआ
एक भुट्टा खाया था
वह भी खा रही थी एक कहती हुई -–

बेटा, कल से बस ये भुट्टे ही खाए हैं और कुछ नहीं खाया
तेज़ बारिश में कम गाड़ियाँ निकली यहाँ से
इतने पैसे भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊँ
पर सिंका हुआ भुट्टा भी अच्‍छा खाना है भूख नहीं लगने देता

मैंने भी वह भुट्टा खाया था और अब मेरा खाने का मन नहीं
अपने लोगों के बीच इतने वर्षों से इसी तरह रहते हुए
अब मैं यह कहने लायक भी नहीं रहा
कि किसी ने कल से खाना नहीं खाया है
इसलिए मेरा भी मन नहीं

कविता के बाहर पत्‍नी से
और कविता के भीतर पाठकों से भी बस इतना ही कह सकता हूँ
कि मैंने शाम एक भुट्टा खाया था
अब मेरा मन नहीं

और जैसा कि मैंने पहले कहा मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग
एक स्थिति है