भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी ने देखा नहीं है / शांति सुमन
Kavita Kosh से
किसी ने देखा नहीं है
नदी का हंसना।
धूप, बरखा ओढ़कर भी
रुख हवा का मोड़कर भी
तानपूरे से विजन में स्वयं का कसना।
किरन को दे रंग की भाषा
पंछियों को गंध की आशा
पत्थरों के गेह में फिर लहर का फंसना।
हवा भी जब आलपिन बनती
आंख से बस रेत ही छनती
एक कल के लिए दलदल में सदा धंसना।
अपने ही तन की परछाईं
एक लपट में समझ न आई
इस दयार में दुख का पर्व् मनाकर ही बसना।