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किसी ने देखा नहीं है / शांति सुमन

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किसी ने देखा नहीं है
नदी का हंसना।

धूप, बरखा ओढ़कर भी
रुख हवा का मोड़कर भी
तानपूरे से विजन में स्वयं का कसना।

किरन को दे रंग की भाषा
पंछियों को गंध की आशा
पत्थरों के गेह में फिर लहर का फंसना।

हवा भी जब आलपिन बनती
आंख से बस रेत ही छनती
एक कल के लिए दलदल में सदा धंसना।

अपने ही तन की परछाईं
एक लपट में समझ न आई
इस दयार में दुख का पर्व् मनाकर ही बसना।