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किसी न किसी बहाने की बातें / प्रदीप कान्त
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किसी न किसी बहाने की बातें
ले देकर ज़माने की बातें
उसी मोड़ पर गिरे थे हम भी
जहाँ थी सम्भल जाने की बातें
रात अपनी गुज़ार दें ख़्वाबों में
सुबह फिर वही कमाने की बातें
समझें न समझें हमारी मर्ज़ी
बड़े हो, कहो सिखाने की बातें
मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे
रोकर कभी भी हँसाने की बातें