भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी भी झील से हँसते कमल निकालता हूं / तुफ़ैल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
किसी भी झील से हँसते कमल निकालता हूं
मैं हर ज़मीन में अच्छी ग़ज़ल निकालता हूं
चलो कि मैं ही जलाता हूं ख़ून से ये चराग़
चलो कि मैं ही अंधेरे का हल निकालता हूं
बना के बांध तुझे झील करके छोड़ूंगा
ज़रा सा ठहर नदी तेरे बल निकालता हूं
ये हो भी सकता है इस बार दांव लग जाये
मैं पांसे फेंक के फिर से रमल निकालता हूं
इबादतों की तरह प्यार है मिरा जानां
मैं तेरी याद के हर दिन से पल निकालता हूं