भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी भी रात जब क़ाग़ज़-कलम उठाता हूँ / विनोद तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी भी रात जब काग़ज़-क़लम उठाता हूँ
भरे-भरे-से कई ज़ख़्म छील जाता हूँ

तेरे ख़याल में डूबा कि खा गया ठोकर
अकेला राह में चलता हूँ भूल जाता हूँ

मुझे पता है मैं सूरज तो बन नहीं सकता
अँधेरी रात में दीपक-सा टिमटिमाता हूँ

प्रयास में उठा लूँगा एक दिन परबत
मैं अपनी शक्ति से ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मेरे नसीब में अश्कों की इक इबारत है
ये और बात है मैं गीत गुनगुनाता हूँ