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किसी शोर के तट पर / कुमार रवींद्र

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यात्राएँ चल रही हैं
चलती जा रही हैं
बीतने का नाम नहीं लेतीं यात्राएँ ।
 
साँसों के मस्तूल से बँधी
मेरी हर इच्छा
लहरों के पार खड़े किसी द्वीप की
आवाज़ों से भर रही है ।
एक सम्मोहक-उत्तेजक लय
एक अनवरत बहता नाद
मुझे
मेरी इच्छा को
मेरे सारे अस्तित्त्व को
अपनी बाँहों में भर रहे हैं ।
किन्तु यात्राएँ चल रही हैं
चलती जा रही हैं |
काश ! वे थोड़ी देर ठहरतीं
इस बहते संगीत के तट पर ।
 
पहचाने सन्दर्भों के नाविक
ले जा रहे हैं
यादों की ओर
मेरे अस्तित्त्व की नाव को;
किन्तु अनजाने द्वीप से
एक धुन मुझे बुला रही है -
बड़ी हठी है वह धुन ।
थोड़ी देर के लिए ठहर गए हैं
पल और निमेष;
यादें बीत गईं हैं;
सन्दर्भ और संबंध ठिठक गए हैं
और मेरे खून की सारी पगडंडियाँ
एक दैवी थरथराहट से काँप रही हैं;
सारे अनुभव कान बनकर सुन रहे हैं
और अनजाने द्वीप की धुन
बह रही है
बहती ही जा रही है ।
काश ! साँसों के मस्तूल से बँधी यात्रा
थम सकती- रुक सकती
थोड़ी देर के लिए ।
 
किन्तु नहीं
यात्राएँ रूकती नहीं हैं
चलती ही जाती हैं -
बीतती हैं पर रूकती नहीं हैं
और द्वीप की आवाज़ें
सूनी हो जाती हैं थककर
किसी शोर के तट पर
रोज़ इसी तरह ।