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किसी सुबह ये भी सही / भावना मिश्र

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किसी सुबह ये भी सही
कि मन हो जाए इक सीला कमरा
जिससे रिसती रहे एक उदास ग़ज़ल की सी आवाज़

किसी सुबह ये भी सही
कि अल्लाह, ईश्वर सब देर से सोके उठें
और दोपहर बाद हो अज़ान..

किसी सुबह ये भी सही
कि हम कहें खूब सारे झूठ
पर रखें दूसरों के सच का हिसाब

किसी सुबह ये भी सही
कि हम कहीं फेंक आएँ
अपना बासी वज़ूद

और ख़त्म कर दें आरे अज़ाब