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किसी स्त्री मन के भीतर / मनीष यादव

पीड़ा के बीज को किसने रोपा
इसका उत्तर-
मैं अपने दु:खों की गिनती से नहीं दूँगा

शायद ज्ञात है मुझे उनके अंतस के खुरदरी
स्मृतियों की परछाईं,

किसी तितली के पहले प्रजनन की भाँति ही
समझ सकता हूँ मैं उनके पहले प्रवास का दु:ख

देखा है मैने
सौम्य और देवी के दिए उपाधियों के पश्चात
पड़ते और सहते तमाचों का दु:ख

कंठ का आलाप जब आँखो की नसों को
चीरने को आतुर हो,
क्या समझ सकते हो तुम उस क्षण में चुप रहने की पीड़ा?

सुनो स्त्री
तुम अब अपनी फूलती सांस को मत घोंटो

उठो और एक तीक्ष्ण स्वर के साथ कह दो –
तुम्हारे दुखों से ज़्यादा , उन दुखों के समझे जाने का ढोंग
तुम्हें हर क्षण गलाए जा रहा है।