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किस्सा मछली मछुए का-1 / अलेक्सान्दर पूश्किन

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नीले-नीले सागर तट पर
घास-फूस की कुटी बनाकर,
तैंतीस वर्षों से उसमें ही
बूढ़ा-बुढ़िया रहते थे,
बुढ़िया बैठी सूत कातती
बूढ़ा जल में जाल बिछाता,
एक बार जो जाल बिछाया
वह बस काई लेकर आया,
बार दूसरी जाल बिछाया
वह बस जल-झाड़ी ही लाया,
बार तीसरी जाल बिछाया
मछली एक फाँसकर लाया,
किन्तु नहीं साधारण मछली,
ढली हुई सोने में असली ।

मानव की भाषा में बोली-
"बाबा, मुझको जल में छोड़ो
बदले में जो चाहो, ले लो,
क्या इच्छा, तुम इतना बोलो ।"

बूढ़ा चकित हुआ घबराया
इतने सालों जाल बिछाया,
मछली मानव जैसा बोले
नहीं कभी भी वह सुन पाया ।
छोड़ दिया उसको पानी में
और कहा मीठी वाणी में-
"भला करे भगवान तुम्हारा
तुम नीले सागर में जाओ,
नहीं चाहिए मुझको कुछ भी,
तुम घर जाओ, चिर सुख पाओ ।"

बूढ़ा जब वापस घर आया,
बुढ़िया को सब हाल सुनाया-
"आज जाल में आई मछली
नहीं आम, सोने की असली,
हम जैसी भाषा में बोली-
'बाबा, मुझको जल में छोड़ो,
बदले में जो चाहो ले लो
क्या इच्छा तुम इतना बोलो ।'
माँगूँ कुछ, यह हुआ न साहस
यों ही छोड़ दिया जल मे, बस ।"

बुढ़िया बूढ़े पर झल्लाई
उसे करारी डाँट पिलाई-
" बिल्कुल बुद्धु तुम, उल्लू हो !
कुछ भी नहीं लिया मछली से
नया कठौता ही ले लेते
घिसा हमारा, नहीं देखते ।"


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु