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किस्सा लँगड़ू पांडे का / भारत यायावर

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कितने साल गुज़र गए

गुज़रे हुए लंगड़ू पांडे को !

--याद करता है

मेरे पड़ोस का हीरामन

उसके मन में

कुलबुलाती है एक बात


फिर वही बात हो

फिर वही बचपन हो

लंगड़ू पांडे गुज़रें

उसके घर की गली से

और वह चिढ़ाए :


लंगड़ू पांडे

'कड़रू का बच्चा' डूर रे


और लंगड़ू पांडे

दौड़ें

अपनी बकुली लेकर

भचकते


उनकी दौड़

ही ही ही

कितनी ख़ुशी

कितना सुख

दे जाती थी

बचपन की

यह चुहल

यह रोज़ का सिलसिला

लंगड़ू पांडे का

रोज़ का गुज़रना

और वही चुहल :


लंगड़ू पांडे

'कड़रू का बचा' डूर रे


पर यह चुहल

आज कितना सालती है

कितनी धूल उड़ा जाती है

यादों की यह गाड़ी


इस गाड़ी पर सवार

हम गँवई लोग

क्यों लौट जाते हैं

फिर वहीं

जहाँ से यात्राएँ शुरू कर

पहुँचे हैं शहर

हुए हैं मशीन

पर कुछ ऎसा है

कि जंगल की तरह

हमें बेतरतीब बिखरा देता है

और लंगड़ू पांडे की

जर्जर हालत

मैल जमी फटी कमीज़ हमें खींचती है । अपनी ओर

कितने साल गुज़र गए

गुज़रे हुए लंगड़ू पांडे को--

याद करता है

मेरे पड़ोस का हीरामन


एक बार हीरामन

उर्फ़ हीरामन तेली

पड़ा बीमार

लंगड़ू पांडे ने

जब उस गली से

आते-जाते नहीं सुनी

उसकी पुकार

तो हुए बहुत परेशान


यह हिरमनिया की आवाज़ को क्या हुआ

या कानों को धोखा हुआ !

पर नहीं !

इस गली में कोई नहीं ! !


हिरमनिया ससुरा,

ई कहाँ चला गया ?


अचम्भा ?

घोर अचम्भा


फिर दूसरे रोज़

हिरमनिया फिर गली से गायब

लंगड़ू पांडे हैरान !


ई हिरमनिया ससुरे को

कुछ हो-हवा तो नहीं गया

वे घुसे उसके घर में

हीरामन को बीमार देख

रो पड़े फूट-फूट कर


उस रोज़

भीख मांगने नहीं गए लंगड़ू पांडे

और हिरमनिया के सिरहाने

बैठे रहे

बैठे रहे


लंगड़ू पांडे

नहीं रहे अब

कितने साल गुज़र गए

दिलों में

यादों के बबूल रोप जाते हुए ?

गाँव के बच्चों के

जवान हुए दिमाग से

नहीं हटते लंगड़ू पांडे


अपने साथ वे

छोड़ गए हैं ढेर सारे किस्से


उन किस्सों में

लंगड़ू पांडे के खेत

बिल्कुल हल्के ढंग से

अदृश्य हो रहे थे उनकी आँखों के सामने से

उन किस्सों में

उनका मकान

ढहता ही जा रहा था

उन किस्सों में

उनकी पत्नी

भूख से जली

दूसरों के घरों में

चौका-बासन कर रही थी

उन किस्सों में

लंगड़ू पांडे


भीख मांग रहे थे

उन किस्सों में

गाँव भर के लोग

उनका मज़ाक उड़ा रहे थे


और

अन्तिम दिनों में

पगला गए थे लंगड़ू पांडे


आज वे बच्चे जवान हो गए हैं

जो लंगड़ू पांडे का

असली नाम तक नहीं जानते

वे यह भी नहीं जानते

कि लंगड़ू पांडे

क्यों हो गए पागल ?

कैसे हो गए पागल ?


पूरा का पूरा गाँव

उस पागल को

इस भरी दुनिया में

भटकने को अकेला छोड़

उसी के धन पर

तुंदियल सेठ की मानिन्द सोता रहा

और हमारे बीच से

अदृश्य हो गए लंगड़ू पांडे


कितने साल गुज़र गए

लंगड़ू पांडे को गुज़रे हुए

फिर भी उस

ढहे हुए मकान को

यादों में बिठाए जी रहे हैं हम


लंगड़ू पांडे

हमारे बचपन के बीच से

अब भी

गुज़रते हैं

पर कोई नहीं करता

चुहल

कोई नहीं कहता--


लंगड़ू पांडे

'कड़रू का बच्चा' डूर रेऽऽऽ