किस्सा लैला मजनूँ / नज़ीर अकबराबादी
पहले तो हम्द<ref>स्तुति</ref> ख़ालिके़ अर्जो समां<ref>धरती-आकाश का निर्माता, ईश्वर</ref> लिखूं।
बाद उसके फिर मैं नाते शहे अम्बिया<ref>नबियों के शहंशाह, मुहम्मद साहब</ref> लिखूं॥
गर उम्र भर मैं इसको लिखूं तो भी क्या लिखूं।
बेइन्तिहां<ref>असीम</ref> है वह तो ग़रज, ताकुजा<ref>कहाँ तक</ref> लिखूं॥
लाज़िम है इसमें तबा<ref>स्वभाव</ref> को इज्ज़इन्तिमा<ref>विनीत वर्धक, अशक्त</ref> लिखूं।
कुछ वस्फ़ हुस्न का लिखूं कुछ इश्क़ का लिखूं॥
कुछ नाज, कुछ नियाज, बफ़िक्रेरसा<ref>सोच-विचार कर, विद्वतापूर्ण</ref> लिखूं।
है जी मैं लैला मजनूं का कुछ माजरा लिखूं॥
सच पूछिये तो दोनों अ़जब काम कर गए।
माशूक़ी आशिक़ी में ग़रज नाम कर गए॥1॥
पैदा हुआ था क़ैस जब अपने पिदर के घर।
मां बाप को हुई थी खु़शी सबसे बेशतर<ref>अधिक</ref>॥
कुनबे के लोग बैठे थे बाहम सब आन कर।
एक धूम रही थी खु़शी की इधर उधर॥
चूमे था बाप कै़स के हरलह्जा<ref>प्रतिक्षण</ref> चश्मो सर।
रखते थे हाथों छाओं उसे गरचा बे ख़तर॥
मां भी लिये फिरी थी उसे अपने दोश<ref>कांधा</ref> पर।
फ़रज़न्द<ref>पुत्र</ref> की खु़शी में लुटाती थी सीमोज़र<ref>चांदी-सोना, धन-दौलत</ref>।
लेकिन वह मां की गोद में आकर न सोता था।
हर वक़्त शोर करता था हर लहजा रोता था॥2॥
मादर थपक थपक के सुलाती थी करके प्यार।
फिरता था बाप फ़ाल दिखाता ब चश्मे ज़ार<ref>चिंतित</ref>॥
ताबीज़ डालता था गले बीच बे शुमार।
लेकिन उसे क़रार न आता था ज़ीनहार॥
रहता था एक फ़कीर कोई वां बुजुर्गवार।
जिस दम वह हाल उस पै किया जाके आश्कार<ref>प्रकट</ref>॥
सुनते ही उसने आह की और होके अश्क बार।
मजनूं के बाप से यह कहा उस घड़ी पुकार॥
दुख पाने वाले लड़के जो दुनियां में आते हैं।
लच्छन सब उनके पहले ही पहचाने जाते हैं॥3॥
लड़का तेरा यह आशिक़ सरशार<ref>मस्त</ref> होवेगा।
महफ़िल में आशिक़ों की नमूदार होवेगा॥
जुल्फ़ों में नाज़नी<ref>कोमल सुन्दरी</ref> के गिरफ़्तार होवेगा।
चश्मे करश्मए साज़ का बीमार होवेगा॥
नाज़ो अदाा का दिल से ख़रीदार होवेगा।
दीदारखू़बरू<ref>सुन्दरी</ref> का तलब गार होवेगा॥
रम्ज़ों से आशिक़ी के ख़बरदार होवेगा।
रुसवाए<ref>कुख्यात, बदनाम</ref> शहरो कूचओ बाज़ार होवेगा॥
तदबीर यह न रोने की इसके किया करो।
तुम गुलरुख़ों की गोद में इसको दिया करो॥4॥
मजनूं का बाप सुनते ही घर की तरफ़ फिरा।
आया तो गुलरुख़ों की उसे गोद में दिया॥
जब उन परीरुख़ों ने उसे प्यार टुक किया।
था वह जो रोता धोना सौ मौकू़फ़<ref>समाप्त</ref> हो गया॥
मां बाप का दिल उसके तईं देख खु़श हुआ।
बारे इसी तरह से हुआ जब वह कुछ बड़ा॥
मक्तब में उसके बाप ने लाकर बिठा दिया।
एक क़ायदा भी सामने उस तिफ़्ल<ref>बच्चा</ref> के रखा॥
मक्तब को देख कै़स ने होश अपना खो दिया।
देखा जो क़ायदे को भी, यारो तो रो दिया॥5॥
उस्ताद ऐसे बैठे कि पूजें वह इश्क़ को।
रूए सुखन में उनके मये आशिक़ी की बू॥
जो कुछ पढ़े तो यूं कहें ग़म के गुहर पिरो।
तख़्ती लिखें तो बोलें इसे आंसुओं से धो॥
मानी जो पूछे तो कहें सब्रो क़रार खो।
तक़रीर पूछे तो यह कहें उसके रू बरू॥
दिल देके खुबरू की मुहब्बत में खू़ब रो।
बाइस<ref>कारण</ref> जो इश्क़ के थे वह हाजिर थे दोस्तो॥
चाहत की पाकबाज़ी<ref>पवित्रता</ref> का हर दम रिवाज था।
लड़का भी इब्तिदा<ref>आरम्भ</ref> ही से आशिक़मिजाज<ref>प्रेम-स्वभाव</ref> था॥6॥
इसके सिवाय और वह जादू ब हर किनार।
लड़केक जो उसमें बैठे सो ऐसे वह गुल इज़ार॥
सूरत को जिनकी देख के बुलबुल हो बेक़रार।
अन्दर तो क़ातिलों का वह मजमा<ref>भीड़</ref> सितमशआर<ref>कष्टदायक</ref>॥
बाहर पड़े तड़पते थे मुश्ताक़<ref>इच्छुक</ref> दिलफ़िगार<ref>दिलजले</ref>।
उनके सिवा यह और क़यामत थी आश्कार<ref>प्रकट</ref>॥
जो उनमें लड़कियां भी कई थीं हयानिगार<ref>लाजभरी</ref>।
जादू पै जादू जब यह हुआ आन कर दो चार॥
दीवानगी के बढ़ने का दीवान हो गया।
मक्तब वह उसके हक में परिस्तान हो गया॥7॥
हुस्नो अदा का नाज़ का देखा जो इल्तियाम<ref>परस्पर लीन</ref>।
उन लड़कियों में एक जो लड़की थी खुशखि़राम<ref>अच्छी चाल वाली, सुगामिनी</ref>॥
थी शर्मगीं वह नाज़नीं लैला था उसका नाम।
जुल्फ़ उस सनम की हो गई मजनूं के दिल की दाम॥
बिन दाम उसने कर लिया मजनूं के तई गुलाम।
उसके भी दिल में उल्फ़ते मजनूं का अजदहाम<ref>धूम</ref>॥
ऐसा हुआ कि बढ़ने लगा जी में सुबहो शाम।
चाहत की मै के पी लिए आपस में भर के जाम॥
तक़दीर से जो चाह का रौशन क़लम हुआ।
दोनों दिलों पै हर्फ़े मुहब्बत रक़म हुआ॥8॥
यह चाहता था उसको उसे वह लुभाती थी।
चाहत जो यह जताता था वह भी जताती थी॥
सन्मुख निगाह निगाह से न हरगिज़ लड़ाती थी।
पर नीची नीची नज़रों से कुछ मुस्कराती थी॥
ज़ाहिर में तो हर एक से वह चाहत छुपाती थी।
लेकिन वह दिल ही दिल में मुहब्बत बढ़ाती थी॥
मक्तब से जब वह नाज़नीं टुक घर को जाती थी।
मजनूं के दिल पे तब तो क़यामत ही आती थी॥
होता हुजूम जी में जो था इज़तिराब<ref>बेचैनी</ref> का।
एक एक वरक़ बिखरता था दिल की किताब का॥9॥
तख़्ती को लेके जब वह क़लम को उठाता था।
मश्के़अलिफ़<ref>अलिफ़ लिखने का अभ्यास</ref> में आह की मद्दे<ref>‘आ’ के स्थान पर प्रयुक्त चिह्न</ref> दिखाता था॥
बे की कशिश में तूलेतपिश<ref>व्याकुलता की लम्बाई, ‘बे को लम्बाकर के लिखना’</ref> को जताता था।
नुक़्ते की जाये क़तरये आंसू बहाता था॥
लिखने में मीम के जो क़लम को हिलाता था।
नक़्शेदहन<ref>मुख का रूप</ref> सनम का उसे याद आता था॥
जिस वक़्त ऐन लिखने में दिल को लगाता था।
देख उसको चश्मे यार तसव्वुर<ref>कल्पना, ध्यान</ref> में लाता था॥
तख़्ती वह क्या थी दफ़्तरे रंजो मलाल<ref>दुख-दर्द का लेखागार</ref> था।
लिखने की बात पूछो तो उसका यह हाल था॥10॥
जाती थी जब वह घर में तो उसका भी था यह हाल।
मक्तब में जल्द जाने का था दम ब दम ख़याल॥
होतीं थीं चुपके रोने से आंखें जब उसकी लाल।
जो पूछता था उससे कोई मूजिबेमलाल<ref>दुख का कारण</ref>॥
कहती थी आंख में जो पलक का गया है बाल।
होता है इस सबब मेरे अश्कों का इत्तिसाल<ref>निरन्तर, गिरना</ref>॥
मजनूं से मिलने का जो उसे शौक़ था कमाल।
एक दम के दूर रहने में होता था जी निढाल॥
जाती थी जल्द फिर उसी उनबान<ref>वैसे ही</ref> आती थी।
मजनूं के तन में देख के फिर जान आती थी॥11॥
कितने दिनों तो रोज़ ही हमराजियां<ref>परस्पर छुप कर बात करना</ref> हुईं।
उल्फ़त की ताज़ा ताज़ा तर अन्दाज़ियां हुईं॥
चाहत की हर किसी से निहांसाजियां<ref>छुपाना</ref> हुई।
हरगिज़ न इत्तिहाम<ref>आरोप</ref> न ग़म्माज़ियां<ref>प्रकटीकरण</ref> हुई॥
ने इफ़तिरा<ref>आरोप</ref> हुआ न दर अन्दाज़ियां<ref>अटकले, अनुमान</ref> हुईं।
शौके़ दरूं<ref>मनोकामना</ref> की आइना परवाज़ियां हुईं॥
छुप छुप के हम दिगर की नज़र बाज़ियां हुई।
यक्ता दिली में तबा की अम्बाज़ियां हुईं॥
मक्तब के बीच गुल की तरह से खिले रहे।
नाज़ो नियाज़ क्या ही धुले और मिले रहे॥12॥
छुट्टी जो मिलती और तो सब लड़के लड़कियां।
हंसते उछलते कूदते कर करके बाज़ियां<ref>शर्त लगाना</ref>॥
लैला के आंसू होते थे रुख़सार पर रवाँ।
कहती थी हो जो रात की जल्दी सहर अयां॥
तो जाके देखूं मजनूं मक्तब के दरमियां।
मजनूं भी हर बहाने से ता शाम उसके हां॥
जाता था देखने उसे रह रह के दरमियां।
जब होती रात घर में फिर आता था नीमजां<ref>थका मांदा, अर्द्धमुआ</ref>॥
लैला की याद दिल को जो हर दम सताती थी।
आंखों में नींद उसके सहर तक न आती थी॥13॥
होती थी जब सहर तो वह मक्तब में आता था।
लैलां को पहले आने से अपने वह पाता था॥
उस गुन्चा लब के मुंह से जो वह मुंह मिलाता था।
गुल की तरह से दिल में न फूला समाता था॥
मिलने का इश्तियाक़<ref>कामना, इच्छा</ref> हर एक दम सताता था।
दिल की तलब को अपनी निगाह से जताता था॥
जब हर्फ़ेशौक़<ref>इच्छा</ref> लैला के लब से बर आता था।
उस नाज़नीं की चाह पै कु़रबान जाता था॥
कहता था ”मैं गु़लाम तेरा बेतमीज़<ref>निःसन्देह</ref> हूं“।
कहती थी हंस के वह भी ”मैं तेरी कनीज़<ref>सेविका</ref> हूं“॥14॥
फिर घर में अपने जाती जो महबूब दिल रुबा।
मजनूं जो कुछ सनम से निशानी था मांगता॥
देती वह कुछ तो मजनूं से कहती थी ”तू भी ला“।
मजनूं भी देता उसको तो लेकर वह महलक़ा<ref>चन्द्रमुखी</ref>॥
चूमे थी उस निशानी को सबसे छुपा छुपा।
मजनूं भी हर घड़ी उसे आंखों पे रखता था॥
रहते तमाम रात इसी धुन में मुब्तिला<ref>लिप्त</ref>।
आखि़र को सुबह जब उन्हें देती थी मुंह दिखा॥
मकतब में फिर तो आने की तशईद<ref>बेचैनी, जल्दी</ref> होती थी॥
दोनों को वह सहर सहरे ईद होती थी॥15॥
जब तक वह खु़र्दसाल<ref>अल्पायु</ref> थी चाहत निहां<ref>छुपी</ref> रही।
स्यानी हुई तो ताड़ने वालों पै कुछ खुली॥
लोगों में चर्चे होने लगे उसके हर घड़ी।
चाहत के गुल की बू न रही आखि़रश<ref>अन्ततोगत्वा</ref> छुपी॥
जाना किसी किसी ने मलामत किसी ने की।
फिर तो वह फैली ऐसी कि पहुंची गली-गली॥
कुछ बन सका न जब तो हुई उनको बे बसी।
छुटपन की थी जो चाह तो हरगिज़ न छुट सकी॥
आसां नहीं है रिश्तए उल्फ़त को तोड़ना।
मुश्किल है बाले पन की मुहब्बत का छोड़ना॥16॥
पहुंची यह बात ख़ानएलैला<ref>लैला के घर</ref> में जिस घड़ी।
मां बाप के दिलों में पड़ी ग़म की गुल छड़ी॥
लैला जब उनके रू बरू आकर हुई खड़ी।
दोनों की तबै कसरतेतम्बीह<ref>घोर चेतावनी</ref> पर अड़ी॥
कुछ झि़कियां दीं बाप ने कुछ मां हुई कड़ी।
हैबत दिखाई और तक़य्युद<ref>कैद, बन्धन</ref> भी की बड़ी॥
तदबीर और इसके सिवा कुछ न बन पड़ी।
मक्तब से उसको मना किया मार कर छड़ी॥
महजूर<ref>वियोगी</ref> कर दिया वहीं फ़रहत<ref>आनन्द</ref> के साथ से।
तख़्ती किताब छीन ली लैला के हाथ से॥17॥
बेबस हो घर में बैठ रही जब तो वह सनम।
होशो हवास कर गए ख़ातिर से उसकी रम॥
मजनूं की याद सफ़हयेदिल<ref>हृदय-पट</ref> पर जो थी रक़म<ref>लिखी हुई</ref>।
”मजनूं“ ही “मजनूं” कहती थी दिल में बदर्दो ग़म॥
लैला की याद मजनूं पै करती थी यां सितम।
तख़्ती कहीं पड़ी थी पड़े थे कहीं क़लम॥
लैला की शक़्ल फिरती थी आंखों में हर क़िसम।
वां एक पल क़रार न यां चैन एक दम॥
दोनों के सहने दिल में जो बेताबी होती थी।
वां ‘मजनूं’ ‘मजनूं’ होता था यां ‘लैला’ ‘लैला’ थी॥18॥
मजनूं के दिल पे जब यह सितमगारियां हुईं।
फुर्क़त<ref>विरह</ref> के दर्दो ग़म की गिरफ़्तारियां हुईं॥
हर आन बेबसी की मददगारियां हुईं।
हर दम इधर उधर की दिल आज़ारियां हुईं॥
उठने की नामो नंग की तैयारियां हुईं।
हिजरा<ref>वियोग</ref> की लहजा लहज़ा जिफ़ाकारियां हुईं॥
जितनी कि उसको मिलने की दुश्वारियां हुईं।
उतनी ही उस सनम को भी नाचारियां हुईं॥
जैसा कि उनके दिल के तई रंजो ताब था।
वैसा ही नाज़नीं के तईं इज्तिराब था॥21॥
कितने दिनों तो कै़स रहा दिल संभालता।
हर लहज़ा रंजो दर्द सहा इन्तिज़ार का॥
जो फ़िक्र वस्ल होती है चाहत में जा बजा।
उस बेक़रार ने भी किया सब वह ठक ठका॥
लैला का जब गुज़र न उधर मुतलक़न<ref>कदापि</ref> हुआ।
फिर तो घर अपना भी उसे लगने लगा बुरा॥
मां बाप से भी रहने लगा हर घड़ी ख़फ़ा।
समझाते थे जो उसके तईं ख़ुवेशोअक़रबा<ref>भाई-बन्धु, सम्बन्धी</ref>॥
आंखों में आंसू बहते थे और लब ख़मोश था।
हरगिज़ किसी की बात पै रखता न गोश था॥22॥
घबरा के था कभी यह सरे बाम बैठता।
कहता हवा से इस घड़ी लैला के पास जा॥
कहियो मेरी तरफ़ से कि ऐ शोख़ दिलरुबा।
तेगेनिगह<ref>नयन-कटारी</ref> से तूने जो बिस्मिल<ref>घायल</ref> मुझे किया॥
क्यूं मुझ से रूठ बैठी है ख़ातिर में हो ख़फ़ा।
ऐ नाज़नीं बता हुई तक़सीर<ref>ख़ता, भूल</ref> मुझ से क्या?॥
लाज़िम है एक बार तू मेरे कने फिर आ।
आकर किसी बहाने से फिर मुंह मुझे दिखा॥
पहरों तलक यह हाल हवा को सुनाता था।
बातें यह उससे कहता था और रोता जाता था॥23॥
जाता कभी चमन में तो होता वहां यह हाल।
बुलबुल को वस्ल गुल में जो था देखना मुहाल॥
मिल बैठने का लैला के था बांधता खयाल।
रो रो के आंखें करता था गुल की तरह से लाल॥
नर्गिस से चश्म लैला को देता कभी मिसाल।
सुम्बुल से याद आते थे लैला के उसको बाल॥
हर सर्व को समझ क़दे लैलाए ख़ुश जमाल।
हर दम गले लगाता था बेताब हो कमाल॥
दिल सख़्तिये फ़िराक़<ref>वियोग</ref> से जूं गुंचातंग<ref>कली के समान, संकुचित</ref> था।
घर में तो वह तरह थी चमन में यह रंग था॥24॥
लाता था बाप खींच के उसको घड़ी-घड़ी।
चैन उसके दिल को घर में न होता था एक ज़री॥
नाचार उसके पांव में जं़जीर डाल दी।
जं़ज़ीर की सदा से भी दीवानगी बढ़ी॥
तदबीर और जुनूं की जो होती है वह भी की।
आखि़र घर अपना छोड़के सहरा की राह ली॥
कहता था बाप जाके जो उस से कभी-कभी।
बेटा मैं तेरा बाप हूं मिल मुझ से इस घड़ी॥
कहता था रोके मैं तो तुझे जानता नहीं।
लैला सिवा किसी को मैं पहचानता नहीं॥25॥
आता था देखने को जो लैला को वह कभी।
था चूमता बहाने से चौखट जो घर की थी॥
खिड़की को देखता था कि है बंद या खुली।
करता निगाह था कभी जाली पै हर घड़ी॥
लैला को उसके आने से होती थी आगही।
फिरती इधर उधर थी वह हीले की ढूंढ़ती।ं
मादर पिदर के ख़ौफ़ से थी गर्चे बे बसी।
तो भी हर एक तरह से वह सूरत दिखाती थी॥
कुछ कह न पाती क्यूं कि हज़र होश खोता था।
बातों के बदले वां उसे रो देना होता था॥26॥
जाती थी सैर बाग़ को जिस दम वह दिलरुबा।
मजनूं के देखने का वह रखती थी मुद्दआ<ref>उद्देश्य</ref>॥
दीदार के लिए वह बहाना था बाग़ का।
लड़के जब आके मजनूं को देते थे यह सुना॥
सुनते ही दौड़ता था खु़शी से वह मुब्तिला<ref>युक्त</ref>॥
लैला भी उसके सुनती थी जब शोर की सदा॥
मोहमिल<ref>पालकी</ref> के पर्दे को वहीं देती थी फिर उठा।
जल्दी से उसको देती थी मुंह एक नज़र दिखा॥
दोनों तरफ़ से शौक़ जो नश्तर चुभोता था।
वां देखना दिखाना इसी ढब से होता था॥27॥
मजनूं का मुद्दतों तलक ऐसा ही हाल था।
आया कभी तो ठहरने उसको न वां दिया॥
गर बन गया बहाना तो टुक मुंह को तक लिया।
वर्ना वह अपने फिर उसी वादी में जा पड़ा॥
सर की ख़बर न अपने उसे थी न होशे पा।
”लैला“ ही ”लैला“ उसकी जु़बां पर थी जा बजा॥
रहता था रात दिन ग़मे फु़र्कत में दिल फंसा।
तन का बयां मैं यारो कहूं उसके और क्या॥
ग़ालिब जो उसके जी पै वह दीवानान हुआ।
लैला की जो कमर थी वह उसका बदन हुआ॥28॥
कहता था दम बदम मेरी दिलदार लैला है।
इस ख़स्ता दिल की मूनिसो<ref>मित्र</ref> ग़मख़्वार लैला है॥
महफ़िल में दिलबरों की नमूदार लैला है।
खू़बीयो दिल बरी में चमन ज़ार लैला है॥
नाज़ो अदा की गर्मिये बाज़ार लैला है।
खू़बाने नाज़नीं<ref>सुन्दर</ref> में फ़सूंकार<ref>जादू करने वाली</ref> लैला है॥
महबूब गुल रूखों की वफ़ादार लैला है।
मजनूं की आशिक़ी की सज़ावार लैला है॥
लैला ही की अदा पै मेरा दिल निसार है।
लैला ही की निगाह मेरे सीने से पार है॥29॥
मां बाप ने जब उसकी यह कुछ देखी बेकली।
मश्शाता<ref>स्त्रियों का बनाव शृंगार करने वाली</ref> एक ख़ानए लैला में भेज दी॥
मादर पिदर ने लैला के बात उससे यह कही।
लड़के की उनके तो है जुनूं<ref>पागलपन</ref> से लगन लगी॥
सुनते हैं वह तो रहता है वहशी सा हर घड़ी।
मश्शाता जब यह सुनके उधर से इधर फिरी॥
उनसे कहा तो यां से यह कह भेजा हर घड़ी।
सब झूठ है जो कहते हैं इसकी दिवानगी।
कुछ ख़ौफ़ मत करो उसे हर दम परेख लो।
बावर न हो तो अपनी तुम आंखों से देख लो॥30॥
कह कर यह कै़स को वह इरादा जता दिया।
ज़र्री लिबास उसके बदन में पिन्हा दिया॥
जुल्फ़ें संवार आंखों में सुर्मा लगा दिया।
दस्तारे<ref>पगड़ी</ref> ज़र फ़िशां<ref>सुनहरी</ref> को ब सर जगमगा दिया॥
पटका सुनहरा उसकी कमर में बंधा दिया।
बुर्दे यमन<ref>यमन की बहुमूल्य चादर</ref> को दोश<ref>कंधों</ref> के ऊपर उढ़ा दिया॥
रूमाल एक ज़री का भी हाथों में ला दिया।
बूढ़े बड़ों के साथ उसे वां भिजा दिया॥
जितने बुजुर्ग थे उसे सब लेके वां गए।
मिलकर जो बैठे यह भी खु़श और वह भी खु़श हुए॥31॥
कहते हैं कै़स लड़कों में साहेब जमाल था।
पोशाक जब वह पहनी तो हुस्न और भी बढ़ा॥
वां जिसने देखा उसको बहुत जी को खु़श लगा।
थीं बीबियां भी देखतीं, गुरफ़ों<ref>खिड़कियां</ref> से जा बजा॥
कहती थी वह तो लड़का निहायत है खु़श अदा।
दीवानगी का इसकी अबस<ref>व्यर्थ, निरर्थक</ref> शोर था मचा॥
बैठे थे उनके पास जो लैला के अक़रबा<ref>समीप के, रिश्तेदार</ref>।
लड़के का हुस्न सबकी निगाहों में था खपा॥
सब दिल में अपने तुख़्म<ref>बीज</ref> मुहब्बत को बोते थे।
उल्फ़त की बातें करते थे और शाद होते थे॥32॥
कहते हैं एक सुग<ref>तोता</ref> कहीं लैला ने पाला था।
नागाह जब वह कै़स को उस जा नज़र पड़ा॥
मजनूं ने सर को पांव पे इस सुग के रख दिया।
कर प्यार उसको अपने गले में लगा लिया॥
रूमाल वह ज़री का उसी को उढ़ा दिया।
गोदी में अपनी प्यार से जल्दी बिठा लिया॥
हाथ अपना उसके पर पे कभी पीठ पर रखा।
बे इख़्तियार होके उसे जब तो यह कहा॥
तू जिसके पास है मुझे उसको जुदाई है।
मुद्दत में तेरी शक्ल नज़र मुझको आई है॥33॥
उस सुग को देख कै़स का जब हो गया यह हाल।
जो हाथ प्यार से दिये गर्दन में उसकी डाल॥
सबके तईं यह देख के हैरत हुई कमाल।
थे जैसे खु़श वह देख के वां कै़स का जमाल॥
वैसा ही उनके दिल को हुआ रंज और मलाल।
आपस में जब तो करने लगे सब यह क़ीलो क़ाल<ref>अच्छी बुरी बात</ref>॥
जो होश में हो उस से तो यह बात है मुहाल<ref>कठिन, मुश्किल</ref>।
होती मगर है ऐसी दिवानों की चाल ढाल॥
यह ढंग कै़स के जो नमूदार हो गए।
जितने गए थे साथ वह नाचार हो गए॥34॥
मां बाप के थी दिल को इधर लग रही खु़शी।
यानी पसंद होगी उन्हें तर्ज़ कै़स की॥
इतने में आये फिर के इधर से जी वह सभी।
जो वारदात गुजरी थी आकर वह सब कही॥
और यूं कहा, बहुत हमें शर्मन्दिगी हुई।
इससे तो हम न जाते तो बेहतर वह बात थी॥
ख़ातिर में फिर तो कै़स के दीवानगी बढ़ी।
शर्मो हयाओ सब्र ने जब दिल से राह ली।
फिर तो हमेशा कूचए लैला में जाता था।
बेताबियां जताता था और गु़ल मचाता था॥35॥
आखि़र यह कै़स की हुई हालत फिर आश्कार<ref>प्रकट</ref>।
कर डाला अपना ग़म से गिरेबान तार तार॥
घर को भी अपने छोड़ दिया होके बेक़रार।
लैला के दर पै आ पड़ा बस होके बेविक़ार<ref>मानहीन, बेइज्जत</ref>॥
वां से भी जब उठा दिया उसको ब हाले ज़ार।
गलियों में जब तो फिरने लगा होके दिल फ़िगार<ref>आहत हृदय, प्रेमी</ref>॥
लड़कों का था हुजूम<ref>झुण्ड, भीड़</ref> लगा साथ बेशुमार।
आंखें भी सुर्ख़, नालों<ref>रोने चिल्लाने</ref> के गु़ल शोर बार बार॥
कसरत में इश्क़ था जो बुते<ref>प्रेयसी</ref> गुलइज़ारका।
एक जोश था जुनूं के चमन की बहार का॥36॥
लैला भी उसकी चाह में बे इख़तियार<ref>बेचैन</ref> थी।
मुंह को लपेटे रहती थी मसनद पै वह पड़ी॥
मिलने को उसके आती थीं जब लड़कियां कभी।
वह ग़म जदा किसी से भी हर गिज़ न बोलती॥
हठ करतीं वह तो उनको सुनाती थी उस घड़ी।
आंखों में अश्क, आह ब लब, और उदास जी॥
जिनहार<ref>हरगिज</ref>! मेरे पास न आया करो कभी।
सोहबत मुझे किसी की नहीं लगती है भली॥
मजनूं के देखने की तमन्ना मुदाम<ref>हमेशा</ref> थी।
लेती सहर<ref>सुबह</ref> से शाम तलक उसका नाम थी॥37॥
इस हद पै चाह पहुंची थी दोनों की दोस्तां।
जो उस पै गुजरा हाल वह इस पर हुआ अयां॥
गर इसके एक फांस लगी तन के दर्मियां।
उसके जिगर से उठने लगा नालओ फु़ंग़ा<ref>आर्तनाद</ref>।
होती थी इसकी चश्म इधर जब गुहर फ़िशां<ref>मोती बरसाने वाली, आंसू बरसने वाली</ref>।
आंखों से अश्क उसके भी होते थे तब रवाँ॥
जो इसकी शक्ल यां थी वही उसकी शक्ल वां।
उल्फ़त का उनकी आह, मैं क्या क्या करूं बयां॥
चाहत के गुल कुछ ऐसी तरह जी में खिल गए।
जो दिल भी उनके मिल गए और तन भी मिल गए॥38॥
सच पूछिये तो रखती है चाहत भी क्या मज़ा।
जब फ़र्क की न आशिक़ो माशूक़ में हो जा॥
यक रंग दोस्ती में रहे दोनों बरमला<ref>खुल्लमखुल्ला</ref>।
जो उसपै हो गया वही इस पर गुज़र गया॥
जो उसके पा में, फिरते हुए आबला पड़ा।
घर बैठे उसके पांव में कांटा वहीं चुभा॥
मजनूं के रूऐं रूऐं में लैला गई समा।
लैला के बंद बंद में मजनूं ही भर गया॥
चाहत के उनसे काम बहुत नेक हो गया।
दोनों में कुछ दुई न रही एक हो गए॥39॥
इसकी मसल मैं करता हूं, यारो जो अब बयां।
पिन्हा<ref>छिपा हुआ</ref> नहीं ग़रज है यह मशहूर दर जहां॥
यह रम्जे़<ref>रहस्य</ref> इश्क़ है इसे जानें हैं आशिक़ां।
उश्शाक़<ref>आशिक का बहुवचन</ref> के यह दिल पै नहीं मुतलिक़न निहां<ref>छिपा हुआ</ref>॥
लैला ने एक रोज़ खुलाई थी फस्दें<ref>रगों से खून निकलवाना</ref> वां।
वादी<ref>घाटी, जंगल</ref> में हो गया रगे मजनूं से खूं खां॥
हैरत हुई हर एक को जब यह हुआ अयां।
हैरत नहीं, यह चाह की हैं पुख़्ता कारियां॥
जब पुख्तगी में चाह का होता कमाल है।
वां होता फिर तो दोस्तो, ऐसा ही हाल है॥40॥
किस्सा तो लैला मजनूं का है, दोस्तो बड़ा।
थोड़ा सा उस किताब से मैंने भी यह लिखा॥
इतनी सखुन मैं रखता था कब तबा को रसा।
कुछ बैठे बैठे यह भी मेरे जी में आ गया॥
सच पूछो तो ज़माने का है ऐतबार क्या।
है राहते-बहार<ref>बहार का सुख</ref> से रंजे-खि़जां<ref>पतझड़ का दुःख</ref> लगा॥
लैला जो उठ गई वहीं मजनूं भी चल बसा।
आगे ‘नज़ीर’ उसका बयां अब करूं मैं क्या॥
क़ाग़ज पै नाम उनका ब इर्क़ाम रह गया।
आखि़र को दोनों जाते रहे नाम रह गया॥41॥