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किस्से हैं ख़ामोशी में निहां और तरह के / नासिर काज़मी

किस्से हैं ख़ामोशी में निहां और तरह के
होते हैं ग़मे-दिल के बयां और तरह के

थी और ही कुछ बात के था ग़म भी गवारा
हालात हैं अब दर-पए-जां और तरह के

ऐ राहरवे-राहे-वफ़ा देख के चलना
इस राह में हैं संगे-गरां और तरह के

खटका है जुदाई का न मिलने की तमन्ना
दिल को हैं मेरे वेहमो-गुमां और तरह के

परसाल तो कलियाँ ही झड़ी थीं मगर अब के
गुलशन में हैं आसारे-खिज़ां और तरह के

दुनिया को नहीं ताब मेरे दर्द की या रब
दे मुझको असालीबे-फुगां और तरह के

हस्ती का भरम खोल दिया एक नज़र ने
अब ऊनी नज़र में हैं जहां और तरह के

लश्कर है न परचम है न दौलत है न सरवत
हैं ख़ाकनशीनों के निशां और तरह के

मरता नहीं अब कोई किसी के लिए 'नासिर'
थे आने ज़माने के जवां और तरह के।