भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किस आसानी से / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने होने को लेकर उठे सवालों को झेलती
मैं जब डूबते-उतराते
जी रही थी
किनारों से दूर होते-होते
किनारों तक भी आती
कि तुम अचानक
मुझसे कट गए
समूची चेतना से
तुम्हें फिर से पा लेने को
आकुल-व्याकुल मैं
भूल गई प्रश्न
चुक गईं जिज्ञासाएँ
समाधानों के सब द्वार
बंद हो गए एक-एक करके
किस आसानी से तुमने
मेरी चिंता को ग़ैर-ज़रूरी करते
मुझे ज़िन्दगी के
सिलसिले से काट दिया