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किस कदर तंग है ज़माना कि फ़ुरसत ही नहीं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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किस कदर तंग है ज़माना कि फ़ुरसत ही नहीं
वो समझते हैं हमें उनसे मुहब्बत ही नहीं

दोपहर सख्त है, सूरज से ठनी है मेरी
ऐसे हालात में आराम की सूरत ही नहीं

शाम से पहले पहुँचना है उफ़ुक तक मुझ को
मुड़ के देखूँ कभी इतनी मुझे मुहलत ही नही

ज़ोर दुनिया का दिलों पर है हमेशा तारी
कैसी दुनिया है, दिलों की कोई क़ीमत ही नहीं

कोई खफ़गी तो ज़रूरी है तगाफ़ुल के लिए
अज़नबी हूँ मैं उन्हे मुझसे शिकायत ही नहीं

देखा कुछ और था महफ़िल में बयाँ और करूँ
ये न होगा कभी,ऎसी मेरी फ़ितरत ही नहीं

यूँ तो बनते भी है कानून यहाँ रोज़ नए
न्याय मुफ़्लिस को मिले ऎसी हुकूमत ही नहीं

उम्र का क्या है "यक़ीन" आज ही दे जाए फ़रेब
कल के वादों की फ़िर ऎसे में हक़ीक़त ही नहीं