किस तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में / विमल कुमार
उफ़!
कितना दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा !
एक भँवर से निकलती हो
फिर दूसरे में जाती हो
फँस```
एक काँटा निकालती हो अपने पाँव से
फिर दूसरा जाता हैं चुभ
तुम्हारी एड़ी में
गंगा नदी की लहरों से निकलती हो तैरकर
फिर यमुना में डूब जाती हो
कितने तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा !
जो खींचते रहते हैं मुझे
बार-बार तुम्हारी तरफ़
तारे निकलते हैं तुम्हारे आँगन में
फिर दूर जाते हैं थोड़ी देर में
फूल खिलते हैं तुम्हारे जूड़े में
पर वो जाते हैं मुरझा फौरन
तुम जिस क़लम से लिखती हो
उसमें तुम्हारे दर्द की ही रोशनाई है भरी हुई
तुम्हारी चादर की सलवटों में भी
दुख का है कोई कोना मुड़ा हुआ
तकिए में भरी है जैसे
दुख की कोई रूई
दुख का एक बादल बैठा है
कहीं कजरे में तुम्हारें
फिर भी तुम लड़ती रहती हो
अपनी तकलीफ़ों से
ग़लत बातों पर झगड़ती रहती हो !
आगे बढ़ती रहती हो
जलती रहती हो
एक मोमबत्ती की तरह दिन-रात
रोशन करती हुई
अपने घर को हर बार
जीती हो
अपनी ज़िन्दगी
बचाकर अपनी ईमानदारी,
......... थोड़ी-सी दुनियादारी
देखती हो एक सपना
अपने बच्चों के लिए
चाहती हो कुछ करना अच्छा
भाइयों के लिए
बदलना चाहती हो
इस दुनिया को अपनी तरह से
दूसरों के लिए
पर मैं तो बनना चाहता हूँ
तुम्हारी परछाई ```
दुख की इस घड़ी में
तुम्हारा साथ देने के लिए
एक बार फिर तुम हँस सको
जिस तरह खिल-खिलाते हुए
मिली थी तुम मुझसे पहली बार
एक गाना गुनगुनाते हुए
जिसका नामचीन गायक भी मर गया
पिछले साल इस बुढ़ापे में
लेकिन तुम्हें पता नहीं
तुम अपना दुख झेलकर
देती रही हो कितनी ताक़त
कितने लोगों को
कितनी उम्मीदें जगाई है
तुमने मेरी भीतर
जाने-अनजाने
मुझे अपनी ज़िन्दगी जीने के लिए
आयरा !
इन उम्मीदों का कर्ज़
नहीं लौटाया जा सकता है कभी जीवन में
सोचता हूँ
कहीं से ला सकूँ
कोई सुख तुम्हारे लिए
ताकि मैं भी हो सकूँ
मुक्त इस कर्ज़ से
दे सकूँ तुम्हें धन्यवाद हृदय से
कि तुम जितनी बार मिली मुझसे
उसमें मैं अपनी पूरी उम्र
जी गया था थोड़ी देर के लिए