किस तरह जिया है? / कमलकांत सक्सेना
मैंने अनगिन गीत सहेजे और सदा ही जहर पिया है।
मिल बैठा, मिलकर दूर हुआ, पूछो मत, किस तरह जिया है?
जीवन पाया, तन खोने को
जीवन रोया, मन रोने को
जीवन गठरी बंधी-खुली सी
जीवन साया क्या ढोने को।
मैंने अनमन मेला देखा और हमेशा समय सिया है।
जुड़ जाने पर मजबूर हुआ, पूछो मत, किस तरह जिया है?
अंधियारा भरा सारा जग है
भूला भटका लगता मग है
सूरज तनया अलसाई सी
गिरता उठता बढ़ता पग है।
मैंने निशिदिन प्राण गलाए और सभी पल निविड़ पिया है।
पढ़ने को सच, दस्तूर हुआ, पूछो मत, किस तरह जिया है?
होने को मैं सुख का सपना
लगता सबको, सबका अपना
लेकिन मुझको अंधा कह कर
अपमानित करता जग अपना।
मैंने अर्चन दीप जलाये और सभी को नेह दिया है।
जल पूरा जल, बेनूर हुआ, पूछो मत, किस तरह जिया है?