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किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'

किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
हम जा नहीं सकते उन्हें आना नहीं मिलता

फिरते हैं वहाँ आप भटकती हैं यहाँ रूह
अब गोर में भी हम को ठिकाना नहीं मिलता

बद-नाम किया है तन-ए-अनवार की सफ़ा ने
दिल में भी उसे राज़ छुपाना नहीं मिलता

दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़ारून को भी अपना ख़जाना नहीं मिलता

आँखें वो दिखाते हैं निकल जाए अगर बात
बोसा तो कहाँ होंट हिलाना नहीं मिलता

ताक़त वो कहाँ जाएँ तस्व्वुर में तो ऐ ‘बर्क़’
बरसों से हमें होश में आना नहीं मिलता