किस तरह हिएँ हम / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
सतहें सब छूट गयीं, बिखर गए मूल्य सभी
दिशा हीन जीवन को किस तरह जिएँ हम॥
बहरे सम्बोधन हैं सूनी संज्ञाएँ हैं
गिनती के साधन हैं अगनित इच्छाएँ हैं
भूखी पीढ़ी का मन प्रश्नचिन्ह जैसा है
खून यहाँ सस्ता है महँगा पद-पैसा है
टूटे संदर्भों के, बूढ़ी तृष्णाओं के
बासी संवेदन को किस तरह हिएँ हम॥
क्रीम सेन चेहरे हैं बटमारी आँखें हैं
इत्र लगी देहों पर रंग पुती पाँखें हैं
जंग लगे भाषण ही छपते अख़बारों में
युग चिंतन सठियाया बेमानी नारों में
अपनो से कटे कटे, बिके हुए कण्ठों के
झूठे आश्वशन को कब तलक पिएँ हम॥
बाहर से एसे हैं भीतर से वैसे हैं
चेहरों में चेहरे हैं अभिनेता कैसे हैं
मरियल आदर्शों का बोझ लिए जीते हैं
कुंठाएँ बुनते हैं शंकाएँ सिलते हैं
बहुरंगी वसनो के सीवन हैं खुले-खुले
उधड़ रहे बखियों को फिर क्यों सिए हम॥
दिशा हीन जीवन को किस तरह जिएँ हम॥