किस विधि? / नरेन्द्र शर्मा
तुमको कैसे प्यार करूँ?
मेरी विफल तपस्या, किस विधि श्रीपद अंगीकार करूँ?
इस खंडित तप वाले को भी छू लेने दी तुमने छाया;
सुनो, क्षितिज के स्वर्ण, बहुत है बस इतनी भी ममता-माया!
छाँह न छीनो, पास न खींचो, बिनती बारम्बार करूँ!
लो मेरा दुर्भाग्य! और क्या दूँगा मैं शाश्वत हतभागी?
बदले में वरदान माँगता देखो तो यह मन अनुरागी?
मैं इस पागल अपनेपन पर फिर भी न कभी अधिकार करूँ!
भूल भटक कितने बीहड़ पथ पार किये तब पहुँचा तुम तक,
आशा पर विश्वास किया था मैं निराश तब पहुँचा तुम तक,
मैं हताश आशा छलना का फिर फिर जयजयकार करूँ!
चाहे कुछ मत दो, पर मत दो मेरा वह खोया अपनापन!
मत दो वह पीछे छूटे जो मरु, मरघट, खँडहर, निर्जन-वन!
दो इतना अधिकार कि मैं अभ्यागत कुछ सत्कार करूँ!
सुनो, तुम्हारे श्रीपदतल-नत कोई भी मस्तक गौरवमय;
तुम मेरे न हो सके, फिर भी आज तुम्हारे बल पर निर्भय
मैं जीवन पथ पर बढ़ता , शत बाधाएँ स्वीकार करूँ!