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किस शय का सुराग़ दे रहा हूँ / राशिद मुफ़्ती

किस शय का सुराग़ दे रहा हूँ
अंधे को चराग़ दे रहा हूँ

देते नहीं लोग दिल भी जिस को
मैं उस को दिमाग़ दे रहा हूँ

बख़्षिष में मिली थीं चंद कलियाँ
तावान में बाग़ दे रहा हूँ

तू ने दिए थे जिस्म को ज़ख़्म
मैं रूह को दाग़ दे रहा हूँ

ज़ख़्मों से लहू टपक रहा है
क़ातिल को सुराग़ दे रहा हूँ