भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कि जैसे रिक्शेवाले ने प्रेम किया हो / आर. चेतनक्रांति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल्ली-बम्बई की औरतों ने
नन्हे-मुन्ने कपड़े पहनने से पहले
देश के ग़रीबों की राय नहीं ली
यह पहली ग़लती थी

उसके बाद तो
क्योंकि ग़लतियों से ग़लतियाँ जन्म लेती हैं
हर सुबह ग़लती की तरह होने लगी
यूँ कि रोज़ सुबह सूरज निकलता
और छूटते ही कहता–धत् तुम्हारी ऐसी तैसी, और सिर झुकाकर बैठ जाता

यह प्रेम के तरीकों पर शोध का दौर था
देह के देवत्व पर रात-दिन काम चल रहा था
वात्स्यायन की एक टीका रोज़ बाज़ार में आती थी
और प्रेम प्रीतिभोज में कड़ाहों की तरह जगह-जगह चढ़ा हुआ था
खौल रहा था – पक रहा था

पर रिक्शेवाले इसमें शामिल न थे
वे अस्फुट स्वर में गालियाँ देते जाने किसे
जब लैला उनके पास से गुज़रती – जैसे मन्त्र बुदबुदाते हों
वे रिक्शे को खड़ंजे पर वहशियाना दौड़ाते
कि जैसे लैला लकड़ी की हो
या कि उसे लकड़ी कर देना हो
वे पैडल पर सीधे खड़े होकर तूफ़ानी मोड़ मुड़ते
और दुनिया की तमाम अप्राप्य औरतों की शान में कुछ कहते जिसे समझना मुश्किल होता

और घर जाकर
अपनी मैली बिसाँधती औरतों को
कोहनियों से कूटते
कि जैसे उनके लिए प्रेम को असम्भव कर देने की गलती भी उन्हीं की हो

काग़ज़ों से खेलती सभ्यता
उन्हें यूँ लगती
कि जैसे नामर्दों का मन्दिर सजता हो
वे अपनी मर्दानगी पर अडिग थे
और रह-रहकर कहा करते थे
कि बस एक रात इसे मुझे दे दो
फिर देखो कैसे खिलती है यह कली

वे लेटे रहते थे
रिक्शों के छज्जे ताने
सोसाइटियों की कुशादा, गर्म सड़कों के किनारे
कि जैसे समन्दर में तूफ़ान हो
और वे कुदरत के इशारे का इन्तज़ार कर रहे हों
और कतरते रहते
फ़िल्मी कतरनें
जिन्हें पहनकर उतरती थी धीरे-धीरे-धीरे परी
चौथे-पाँचवें या जाने कौन से आसमान से
वे हँसते रहते
बुडि्ढयों के पजामों और बुड्ढों के निक्करों पर
और नजाकत पर जो जाने कैसी-कैसी नौटंकियाँ करती फिरती थी

वे डरते नहीं थे
उनके पास रिक्शा था
और हुशियारी की लम्बी ग्रामीण परम्परा
जो उन्हें अकाट्य लगती थी। और ह्यूमर जिसमें हिंसा और करुणा गड्ड-मड्ड रहती थी। और आँच जो आग से उनकी हिफाजत करती थी (हालाँकि वे फूल नहीं थे)

लेकिन वे रह जाते थे
मुँहबाए फूल की ही तरह
जब चिलचिलाती। अपने ही ताप से काँपती। सफेद टीन-सी धूप में
जैसे सट ही जाती हो आकर परी
कि जैसे आग की एक लपट ने ही पहन लिए हों फूल
और कहती हो कि चलो वक़्त है वापसी का

और तब अचानक
सैकड़ों सालों के इन्तज़ार के बाद
दुनिया बदलना शुरू होती
कि जैसे कोलतार के गगनचुम्बी खम्भे
पिघल-पिघल जज्ब होते हों रेत में
कि जैसे दुखों और उदासियों के
खुदरा बुराइयों और शिशु बदमाशियों के
आड़े-टेढ़े पत्तर आँधियों में उड़ जाएँ
कि जैसे सारी धरती के दरख़्त
लाइन बनाकर बैण्ड बजाते चारों ओर से घिर आएँ
कुदरत सारी `हैराँ-हैराँ´ हो जाए

तब वे हाथ मारते
एक पराई दुनिया की पराई हवा मेंं किसी भाषा के एक शब्द के लिए
जो या तो उनके दिल को बोल दे
गर नहीं तो इस इन्द्रजाल की जादू-गाँठ खोल दे
कि इस हार के मुँह से
वे नहीं दिखना चाहते थे ऐसे कि कोई देखकर कहे
कि देखो रिक्शेवाले ने भी प्रेम किया।