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कि रस्ते ये तुमने खुद ही चुने थे / उर्मिल सत्यभूषण
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कि रस्ते ये तुमने खुद ही चुने थे
जो कांटे चुभे हैं तो शिकवा है कैसा?
बहुत नर्म नाजुक से सपने बुने थे
गुलों से झरे हैं तो शिकवा है कैसा?
लहु से है लथपथ मन की गली यह
है कीलों से बींधी दिल की कली यह
उसूलों के सच जो तुमने गुने थे
वो सूली चढ़े हैं तो शिकवा है कैसा?
अकेले ही चलने का तब हौसला था
कि तपती डगर पर न कोई मिला था
किसी के न दो बोल तुमने सुने थे
सन्नाटे खले हैं तो शिकवा है कैसा?
उजागर किया सच तो तुमने क्या पाया
रहा शीश पर घोर तम का ही साया
कि पांवों से बीहड़ खुद ही धुने थे
जो छाले पड़े हैं तो शिकवा है कैसा,
कि वो भीड़ में भीड़ हो खो न पाई
जो उर्मिल ने पहचान अपनी बनाई
कहे गीत ऐसे जो अनसुने थे
कि पत्थर पड़े हैं तो शिकवा है कैसा,