भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग कान्हरा

कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज।
महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥
माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज।
देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज॥
कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज।
दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ्यौ जहाज॥
लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज।
नई न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा गरीब निवाज॥


भावार्थ :- इस पद में भक्त ने भगवान के आगे अपना हृदय खोलकर रख दिया है। कहता है तुम्हें अपने विरद की लाज रखनी हो, तो तार ही दो। पूछो, तो मैं आज तक तुम्हारे काम नहीं आया। इस प्रबल माया अकोन, कामिनी-कांचन के बंधन में बहुत बुरी तरह से जकड़ा हूं। देखता हूं, सुनता हूं और सब जानता हूं, पर जो नहीं करना चाहिए, वही करता चला जाता हूं। पर यह विश्वास है, कि तुम पतितोद्धारक हो। यद्दपि मैं पार उतराई नहीं देना चाहता हूं, फिर भी नाव पर चढ़ना चाहता हूं। तुमसे कोई नई बात करने को नहीं कहता। तुम तो सदा से पतितों को पार उतारते आये हो। तुम गरीब-निवाज हो, तो मुझ गरीब को भी पार लगा दो। `नेकु तिहारे काज,' `तऊ न आयौं बाज,' `दई न जाति....जहाज,' `नई न करन कहत' आदि की बड़ी सुन्दर और मुहावरे-दार भाषा है। अहंकार को भगवान की अगाध करुणा में डुबो देने की ओर इस पद में संकेत किया गया है।


शब्दार्थ :-बिरद =बड़ाई। न आयौं बाज = छोड़ा नहीं। खेवट = नाव खेने वाला। उतराई =पार उतारने की मजदूरी। नई = कोई नई बात।