कीर, मरकट-सा बँधा हूँ मोह से / गौरव शुक्ल
कीर, मरकट-सा बँधा हूँ मोह से,
चाहता हूँ, शांति मिल जाए मुझे।
किस विरोधाभास में हूँ जी रहा,
है हँसी के योग्य ही अज्ञान यह।
है पराकाष्ठा महा अविवेक की,
है अबोधों की तरह अभिधान यह।
रुचि कहीं है, ध्येय में कुछ और है;
है कहाँ जाना, कहाँ हूँ जा रहा।
हूँ निकट तालाब के बैठा हुआ,
रत्न पाने के लिए ललचा रहा।
कुल मिलाकर है बड़ी दयनीय स्थिति,
चाहिए क्या और क्या भाए मुझे।
दो तरणियों में चरण रक्खे हुए,
सिंधु के उस पार जाना चाहता।
मूढ़ता इसको नहीं तो क्या कहूँ,
पीस रेती, तेल पाना चाहता।
चाहता, दोनों करो में थामना-
मोदकों को; हाय! कैसा लोभ है।
है भरी उद्विग्नता मस्तिष्क में,
और अंतर में निहित विक्षोभ है।
आप के अतिरिक्त भगवन कौन जो,
इस द्विधा से मुक्ति दिलवाए मुझे।
लिप्त विषयों में दुरित, आकंठ हूँ,
मुक्ति विषयों से सहज मिलती नहीं।
अग्रसर हूँ नित पतन के पंथ पर,
बुद्धि पापाचार से हटती नहीं।
काम के परदे पड़े हैं दृष्टि पर,
क्रोध के बादल नहीं छँट पा रहे।
मद प्रवाहित है शिरा प्रत्येक में,
लोभ में बिंधते अहर्निश जा रहे।
चित्त की कुल वृत्तियाँ हैं तामसिक,
नित्य मायाजाल भरमाए मुझे।