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कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो! / महादेवी वर्मा

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कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो!

हो उठी है चंचु छूकर,
तीलियाँ भी वेणु सस्वर;
बन्दिनी स्पन्दित व्यथा ले,
सिहरता जड़ मौन पिंजर!

आज जड़ता में इसी की बोल दो!

जग पड़ा छू अश्रु-धारा;
हत परों का विभव सारा
अब अलस बन्दी युगों का-
ले उड़ेगा शिथिल कारा!

पङ्ख पर वे सजल सपने तोल दो!

क्या तिमिर कैसी निशा है!
आज विदिशा ही दिशा है;
दूर-खग आ निकटता के
अमर बन्धन में बसा है!

प्रलय घन में आज राका घोल दो!

चपल पारद सा विकल तन,
सजल नीरद सा भरा मन,
नाप नीलकाश ले जो-
बेडियों का माप यह बन,
एक किरण अनन्त दिन की मोल दो!