कीर की पुकार / अज्ञेय
तड़पी कीर की पुकार : प्राण!
विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-प्राण!
कितनी जीवनियों की नीरवता छिन्न हुई उस स्वर से सहसा
मेरा यह संगीत अपरिचित जगत हुआ ध्वनि से आलोकित
दुर्निवार कर-स्पर्श प्रताडि़त
स्मृति वीणा झनझना उठी वह लोकोत्तर झनकार! प्राण! प्राण!
कीर, तुम्हारा रुप-रंग है पृथ्वी का आशा-संकेत
यह तीखा आलाप तुम्हारा क्यों फिर घोर व्यथा का हेतु?
ओ मधु के मधु-गायक पक्षी! क्यों व्यापक है तेरा गान?
वर्षा की गति धारासार शरद-शिशिर का पीड़ा-भार,
खर-निदाघ के बरस रहे अंगार-
और-और अतिरिक्त कहीं कुछ, जिसे न बाँधे शब्द-विधान!
स्मृति की शक्ति-विगत जीवन की ममता-
उस अजस्र से तारतम्य की क्षमता-
उर के भीतर कहीं जमा कर, निज पुकार के क्षण में अखिल विश्व
तड़पा कर,
कुछ जो हो जाता नि:स्पन्द, मूक! और हम-तद्गत, विरही, जागरूक!
प्राण! प्राण! प्राण!
कीर, अगर कुछ कहे को समर्थ मैं रहता-
विवश प्रेरणा से बस कहता-
चुप हो, चुप हो, बन्द करो यह तान-
इस छोटे जग में न उठाओ अखिल भुवन का गान!
पर कैसे? जब एक बार तुम बोले, तत्क्षण लुटा जगत्,
अन्त:पट खोले!
एक तथ्य रह गया जगत में दुर्निवार,
विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-
दु:सह, अनुक्रम बार-बार तड़पी कीर की पुकार : प्राण!
प्राण! प्राण! प्राण!
लाहौर, 27 फरवरी, 1935