कील / कुमार वीरेन्द्र
'गाँव आधा-आधा बँट गया
नदी का तो केेवल
काम था बहना, लेकिन वह भी बँट गई
हवा बँट नाहीं सकती थी, आसमान बँट नाहीं सकता था, जो खेत
बधार-बगीचे थे, ऊ तो नाहीं बँटे, उन तक पहुँचने की हर डगर बँट
गई, गोहार होने लगी तो छोरे-छोर, ललकार गूँजने लगी
फिर एक-एक कर सारे हरवे-हथियार बँट गए
तो जो होना था आधा-आधा, हो
चुका, तो एक दिन
गोली चली, अउर एगो लाश गिरी
दूर तक छींटों से लाल
हो गई धरती, फिर हाहाकार गूँजा, अउर हाहास बन
घुमड़ने लगा, कि ऊ, आधा हो सकता था न किया जा सकता था...', कहते-कहते चुप हो गई
'फिर, फिर का हुआ, आजी ?', 'वही जो नाहीं होना चाहिए था, हवा का तेज झोंका भी आता
लगता, केहू किवाड़ी खुलवा रहा, कतहुँ कुकुर भउँकता, लगता लोग आ रहे हैं मार
करने, बिलाई रोती सरग टूटने जइसा लगता, रात घाती लगती, सुबेर
भी साँझ जइसन, ई तो आँगन में चिरइंयाँ आतीं कि
लगता दिन है, केहू कहता खाने को
लगता पेट भी है
आँसू नाहीं गिरते, जाने सब बदरियाँ कहँवा चली गई थीं
आम के एगो टिकोरा खातिर
छोटहन झगड़ा, अइसन हो जाएगा, सोचा न था, हर बेरी लगता
पता नाहीं कब, तेरे बाप को लोग मार-काट दें, कहीं खपा दें, तेरा बाप भी अइसा कहँवा सुननेवाला
एक बार कह दिया, हम जोम में खून करनेवालों के साथ नाहीं, तो नाहीं, जो हो, फिर तो जो बैरी थे
थे ही, अपने भी बैरी बन गए, तेरे बाबा लोग किसी से का कहते, जब हर मुँह माहुर
अउर तेरा बाप, कतनो समझाओ, बजर बुुुरबक, साइकिल उठा चला
जाता कउलेज, कि इम्तिहान छोड़, घर में नाहीं बैठना
खेतिहर बनूँ चाहे जो, अनपढ़ नाहीं
रहना, तब का करती
घूँघट में छिप, इस राह, उस राह, देखती फिरती
कि जो मेरे बेटे को
मारने आएँगे, सब तो बचकर नाहीं जाएँगे
ऊ तो अच्छा हुआ, जिसका खून हुआ था, उसके घरवाले साथ खड़े हो
गए, कि एगो निरदोस मारा गया, तो बदले में एगो अउर निरदोस, नाहीं
मारा जाना चाहिए...', कहते-कहते फफक पड़ी आजी, 'अरे ई
का, अब काहे, ऊ दिन तो बीत गया न...', 'हँ बेटा
बीत गया, लेकिन का करें, बेटा, कि
घाव तो सूख जाता है
कलेजे में धँसी
कील नाहीं सूखती !