भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
की कानै वसंत? / कुमार संभव
Kavita Kosh से
सखी, कानै छी हम्में, की कानै वसंत?
पपीहा कानै छै, पी-पी कहि केॅ
कोयल कानै छै, कू-कू कहि केॅ,
सतवंती मैना भी कानै छै देखोॅ
उड़ी-उड़ी बैठे चूँ-चूँ करि केॅ,
चलै छै रहि-रहि पछुआ के रंथ
सखी, कानै छी हम्में, की कानै वसंत?
कैन्होॅ दरद ई जे सगरोॅ देखाबै
भुटकै छै अंग-अंग रोइयाँ जराबै,
माय के बोली कुबोलिये लागै
केकरोॅ नै बोली तनियो सुहाबै,
सांची कहौं सखी, हमरोॅ दुख छै अनंत
सखी, कानै छी हम्में, की कानै वसंत?
मन भी पागल, तन भी पागल छै
हवा बजाबै सुर में मादल छै,
पत्ता-पत्ता में बोरैलोॅ छै मंजर
सिंगरैलोॅ मनोॅ के कण-कण घायल छै,
ऐन्हें में पिया बनी गेलोॅ छै महंथ
सखी, कानै छी हम्में, की कानै वसंत?