भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
की वसन्त, की चैत सुहावै / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
Kavita Kosh से
की वसन्त, की चैत सुहावै
मन के किंछा कहाँ पुरावै!
फुललै लाल कमल के संगे
नीला-नीला कमल फूल ठो;
हमरोॅ तेॅ मन उजरोॅ-उजरोॅ
जेहनोॅ तन पर छै कूल दु ठो;
कोयल सें मिलि केॅ भौंरा सब
चुपचुप हमरोॅ हँसी उड़ावै।
की वसन्त, की चैत सुहावै!
मंजर सें मंजरैलोॅ कत्तो
रंग सें फूल अघैलोॅ कत्तो
कुहू सें वोॅन मतैलोॅ कत्तो
रस सें रास रसैलोॅ कत्तो
हमरा लेॅ के? फेनू ई मन
केकरोॅ-केकरोॅ बात उठावै?
की वसन्त, की चैत सुहावै!