की है वाणी की साधना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
की है वाणी की साधना
दीर्घकाल तक,
आज क्षण-क्षण में करता हूं उपहास परिहास उसका।
बहु व्यवहार और दीर्घ परिचय
तेज उसका कर रहा क्षय।
करके अपने अवहेलना
अपने से करती है खेल वह।
तो भी, मैं जानता हूं, अपरिचिका परिचय
निहित था वाक्य, जो उसके वाक्य के अतीत है।
उस अपरिचितका दूत आज मुझे
लिये जाता है दूर
अकूल सिन्धु को
प्रणाम निवेदन करने को,
इसी से कहता है मन, ‘मैं जाता हूं ।’
उस सिन्धु दिन यात्रा को सूर्य कर देता पूर्ण,
वहाँ से सन्ध्या-तारा
रात्रि को दिखाते चलते है पथ,
जहाँ उसका रथ
चला है ढूंढ़ने को
नूतन प्रभात किरणों को तमिस्त्रा के पार।
आज सभी बातें
लगती हैं केवल मुखरता सी।
रुकी है वे
पुरातन उस मन्त्र के पास आकर
जो ध्वनित हो रहा है उस नैःशब़्द्य शिखर पर
सकल संशय तर्क
जिस मौन की गभीरता में होते निःशेष हैं।
लोक ख्याति जिसके पवन से
क्षीण होकर तुच्छ हो जाती है।
दिन शेष में कर्मशाला
भाषा रचना का रूद्ध कर दे द्वार।
पड़ रह जाय पीछे
झूठा कूड़ करकट सारां
बारम्बर मन हीमन कह रहा हूं,
‘मैं जाता हूं’
जहाँ नहीं है नाम,
जहाँ हो चुका है लय
समस्त विशेष परिचय,
‘नहीं’ और ‘है’
जहाँ मिले है दोनों एक में,
जहाँ अखण्ड दिन
हैं आलोक-हीन अन्धकार-हीन,
मेरी ‘मैं’ की धारा जहाँ विलीन हो जायगी
क्रमशः परिपूर्ण चैतन्य के सागर संगम में।
यह वाह्य आवरण
ज्ञात नहीं,
नाना रूप रूपान्तर में
काल स्रोत में कहाँ बह जायगा।
अपने स्वातन्त्र्य से निःसक्त हो देखूंगा उसे बाहर
‘बहु’ के साथ जड़ित मैं अज्ञात तीर्थगामी।
आसन्न है वर्ष शेष।
पुरातन सब कुछ अपना मेरा
शिथिल वृन्त कुसुम सम
छिन्न हुआ जाता है।
अनुभव उसका
कर रहा विस्तार अपना
मेरे सब कुछ में।
प्रच्छन्न विराजता रहा जो
निगूढ़ अन्तर में एकाकी,
देखता हूं उसी को मैं
दर्शन पाने की आशा में।
पश्चात का कवि
पोंछकर कर रहा क्षीण अपने हस्तांकित चित्र को।
सुदूर सम्मुख में सिन्धु और निःशब्द रजनी है,
उसके तीर से सुनता हूं, अपनी ही पदध्वनि।
असीम पथ का पथिक मैं, अब की आया हूं धरा पर
मर्त्य जीवन के काम पर।
इस पथ में प्रतिक्षण अगोचर में
जो कुछ भी पाया उसमें पाई मैंने यही एक सम्पदा,
अमूल्य और उपादेय
यात्रा का अक्षय पाथेय।
मन कहता है, ‘मैं जाता हूं’ -
अपना प्रणाम रखे जाता हूं उनके लिए
जिन्होंने जीवन का प्रकाश
डाला है मार्ग में,
जिन्होंने संशय को किया दूर बार-बार।
‘उदयन’
प्रभात: 19 जनवरी, 1941