कुँअर उदयसिंह अनुज के दोहे-1 / कुँअर उदयसिंह 'अनुज'
कैसा सींचा आपने, कैसी करी सँवार।
उपजाऊ इस खेत की, फ़सलें हैं बीमार।
ग़लत जुटाया आपने, यह साज़ो-सामान।
बनते-बनते ढह गया, अपना एक मकान।
डंका जिनके नाम का, यहाँ बजे दिन-रात।
वे डंके की चोट पर, मचा रहे उत्पात।
कालर उनकी खींचिए, चाबी जिनके पास।
यहाँ निरर्थक कर रहे, तुम धरना उपवास।
काँटे कष्टों के जलें, दुख जायेगा भाग।
बुझने कभी न दीजिये, यह छाती की आग।
गूँज उठेगी चीख जब, नभ की छाती चीर।
दहला देगी यह धरा, वंचित गूँगी पीर।
भटका अपना कारवाँ, हासिल हुआ न ठौर।
जिस मुक़ाम परआ गये, यह मुक़ाम कुछ और।
रहा सफ़र में हमसफ़र, करता हम पर वार।
अपनों ही के हाथ से, अपना हुआ शिकार।
बढ़-चढ़ मीठा बोलता, छलिया अफलातून।
किया इसी ने आपके, अरमानों का खून।
श्वेत वसन बहुरूपिये, लूट रहे जन कोष।
जन-सेवा की आड़ में, ढाँपें अपने दोष।