कुँअर उदयसिंह अनुज के दोहे-2 / कुँअर उदयसिंह 'अनुज'
चुभे पाँव में कील सी, लोकतंत्र की बाट।
गाँवों में छल बो गये, दिल्ली के कुल-भाट।
हंसों का जब हो गया, बगुलों से गठजोड़।
निर्णय सुनकर मछलियाँ, बैठी हैं सर फोड़।
लोकतंत्र के भाग में, यह कैसा संजोग।
संसद और तिहाड़ में, एक सरीखे लोग।
मरहम जिनके हाथ में, लोग कुटिल मतिमंद।
नमक छिड़कने में मिले, उन्हें अधिक आनंद।
खेती खरपतवार की, दिल्ली तक है आम।
अच्छी फसलों बीज के, नहीं रहे अब दाम।
झंडों से छत पट गई, पोस्टर से दीवार।
पीकर चहके टापरी, अच्छे दिन हैं यार।
सूखे टिक्कड़ खा जिएँ, घेर खड़े दुर्योग।
ऐसों की किस्मत लिखें, हलुवा खाते लोग।
सत्य दबाकर चोंच में, उड़ी झूठ की चील।
ढूँढ रहा हूँ मैं जला, शब्दों की क़न्दील।
सुबह अगर चूल्हा जला, भूखी सोयी साँझ।
सुख कब जनती झोंपड़ी, रही तरक़्क़ी बाँझ।
सिकुड़ पेट से सट रहे, और मनाई ख़ैर।
चादर तो थी ही नहीं, कहाँ पसरते पैर।