कुँअर उदयसिंह अनुज के दोहे-3 / कुँअर उदयसिंह 'अनुज'
राजघाट से लौटकर, दावत होगी ख़ास।
दो अक्टूबर साब का, मुर्ग़ा रहा उदास।
दस-दस माथे दुष्ट के, कुटिल सभी हैं साथ।
कई राम अब चाहिए, करने दो-दो हाथ।
जंगल से आ साँप ने, बोला मेरे कान।
ज़हरीला ज़्यादा हुआ, गाँव शहर इन्सान।
खेत मशीनें जोततीं, फुरसत में हल-बैल।
रखे बनाकर गाँव को, पूँजीवाद रखैल।
रेडिमेड से पट गया, गाँवों का बाज़ार।
दीनू दरजी हाथ पर, हाथ धरे लाचार।
मन्दिर से सट खुल गयी, सट्टे की दूकान।
उससे सटा कलाल का, घर है आलीशान।
तोड़ गया दम गाँव से, अब ढोली का ढोल।
साँसें फूलीं बेंड की, सुन डी जे के बोल।
टप्पर-टप्पर टँग गये, ब्यूटी-पार्लर बोर्ड।
करे मजूरी गोमती, खर्चा करे अफोर्ड।
लोक-पर्व ने तोड़ दी, लोक-गीत से प्रीत।
गलियाँ गाएँ गाँव में, पेरोडी के गीत।
अब नन्हें से गाँव के, पनघट सब वीरान।
हेंडपम्प ने छीन ली, बची-खुची पहचान।