भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुँवारी धूप / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हल्दी के
सपने आँखों में
सजा रही,
सरसों के
फूलों सँग
खड़ी कुँआरी धूप

थोड़ी-सी
ही बड़ी हुई है
फुदक रही,
एक ख़ुशी
उसके अंदर से
छलक रही

बाद शिशिर के
लगती
कितनी प्यारी धूप

आँखों में
मधुमास-मिलन
के सपने धर,
नज़र रख रही
वह सेमल की
डाली पर

छुईमुई-सी
सिमट रही
बेचारी धूप

आएँगे
दिन जीवन में
टेसू वाले,
होंगे सुर्ख
अधर पर
महुआ के प्याले

सोच-सोच
खिल उठी
पुनः सुकुमारी धूप।