भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुंडलियाँ - 1 / ऋता शेखर 'मधु'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनके हिय में हरि बसे, वे हैं साधु समान।
परहित को तत्पर रहें, लेकर के संज्ञान॥
लेकर के संज्ञान, स्वयं आगे आ जाते।
भेदभाव को छोड़, सबको गले लगाते।
'मधु' डूबी मझधार, सहारा बनते तिनके।
होते साधु समान, हृदय में हरि हैं जिनके॥1

सम्बोधन के शब्द में, होते गहरे राज।
कर्कश, नम्र, विनीत या, कहीं दिखाते नाज़॥
कहीं दिखाते नाज, कुसुम बन कर सजते हैं,
सही बँधे जब तार, सप्तसुर ही बजते हैं।
 'मधु' ये रखना ध्यान, कर्णप्रिय हो उद्बोधन,
अच्छी होगी सोच, मधुर होंगे सम्बोधन॥2

माना जीवन-पथ नहीं, होता है आसान।
मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान॥
अधरों पर मुस्कान, राह को सरल बनाती,
खग-गुंजन के साथ, ऋचा वेदों की आती॥
भोर-निशा का राज, प्रकृति से "मधु" ने जाना।
पतझर संग बसन्त, नियम जीवन का माना॥3