कुए की छाया कुए मैं रैगी / मनोज चारण 'कुमार'
कुए की छाया कुए मैं रैगी,
बात बणे ही, बस बणती बणती रैगी।
रोकणे की कोशिस ही नदी की धार नै रेत स्युं,
पण रेत ही, पाणी कै सागै ई बैयगी।१।
कुए की छाया कुए मैं ई रैगी,
बायी तो आसमाना ही, पण पताळ कानी बैगी,
ईच्छा तो ही मोकळी, करालां काम सांतरों,
पण मनचीती तो भाईड़ा मन-की-मन मैं ई रैगी।२।
कुए की छाया कुए मैं ई रैगी,
माटी पाळ आळी बस बालै मैं बैगी,
पाळ बांधणे की कोशिस करी जका पिढ़यां ताणी,
बणाई ही माटी की पाळ जकी, पाळ बा ढैगी।३।
कुए की छाया कुए मैं ई रैगी,
काळती गाय खूँटे बंधी ही, बंधेड़ी ई रैगी,
धोळीया की जगां भूरिया आके ले भाग्या,
भूर बंटे ही आजादी की, बंटती ई रैगी।४।